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संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता...3 अनुसार उत्कर्ष के आधान को संस्कार कहते हैं-'उत्कर्षाधानं संस्कारः।' संस्कार प्रकाश के अनुसार अतिशय गुण को संस्कार कहा जाता है-'अतिशयविशेष: संस्कार:।13
कोश ग्रन्थों में इसका अर्थ शुद्ध किया हुआ, परिमार्जित किया हुआ, परिष्कृत किया हुआ, सुधारा हुआ, संवारा हुआ आदि किया है। अंग्रेजी में इसके लिए 'सेरेमॅनि' अर्थात धर्मानुष्ठान एवं ‘एक्रामेण्ट' आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, परन्तु ये शब्द भारतीय संस्कृति में व्यवहत 'संस्कार' शब्द के व्यापक अर्थ को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं। भारतीय परम्परा में संस्कार का अर्थ व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक परिष्कार हेतु किए जाने वाले अनुष्ठानों से संबंधित है।
इस प्रकार संस्कार शब्द के अनेक अर्थ मालूम होते हैं। यहाँ 'संस्कार' शब्द से हमारा तात्पर्य-व्यक्ति के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों एवं क्रियाकलापों से है। संस्कार का पारिभाषिक स्वरूप
जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्त्व है। वे मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति के द्योतक हैं। संस्कारों के कारण मनुष्य को योग्य एवं उचित प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। संस्कारमय जीवन आध्यात्मिक साधना की दृढ़ भूमिका है। संस्कारों द्वारा आध्यात्मिक जीवन का क्रमश: विकास होता है। भारतीय विचारकों ने संस्कार की विभिन्न परिभाषाएँ बताई हैं- सामान्यत: जिस क्रिया के योग से मनुष्य में सद्गुणों का विकास एवं संवर्धन होता है, उस क्रिया को संस्कार कहते हैं। संस्कार एक मूल्यवर्द्धक प्रक्रिया है।
• आचार्य देवेन्द्रमुनि के अनुसार जिससे पदार्थ एवं व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य होता है, वह संस्कार है।14 संस्कार वे क्रियाएँ और रीतियाँ हैं, जो विशिष्ट योग्यता प्रदान करती हैं। • मीमांसा दर्शन ने यज्ञीय पुरोडाश आदि की विधिवत शुद्धि करने को संस्कार कहा है- “प्रोक्षणादिजन्य संस्कारो यज्ञांग पुरोडाशेषु।” • अद्वैत वेदान्त के अनुसार जीव पर शारीरिक क्रियाओं का मिथ्या आरोप करना संस्कार है- “स्नानाचमनादिजन्याः संस्कारो देहे उत्पद्यमानानि तदभिधानानि जीवे कल्ज्यन्ते।"
• न्याय दर्शन के अनुसार भावों को व्यक्त करने की आत्मव्यंजक शक्ति