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2... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
बृहदारण्यक' उपनिषदों ने इसका प्रयोग (संस्करोति) उन्नति करने के अर्थ में किया है। महर्षि पाणिनि ने इस शब्द का प्रयोग तीन विभिन्न अर्थों में किया है1. उत्कर्ष करने वाला (उत्कर्ष साधनं संस्कार:) 2. समवाय अथवा संघात और 3. आभूषण
ब्राह्मण और सूत्र ग्रन्थकारों ने 'संस्कार' शब्द का व्यवहार यज्ञ की सामग्रियों को पवित्र करने के अर्थ में किया है। बौद्ध त्रिपिटकों में निर्माण, आभूषण, समवाय, प्रकृति, कर्म और स्कन्ध के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है। बौद्ध दर्शन ने संस्कार को भव चक्र की बारह श्रृंखलाओं में से एक माना है। हिन्दू दर्शन में इसका प्रयोग कुछ भिन्न अर्थ में प्राप्त होता है । यहाँ संस्कार का अर्थ भोग्य पदार्थों के अनुभूति की छाप है । हमारे अव्यक्त मन पर जितने अनुभवों की छाप है, अनुकूल अवसर पाने पर उन सबका पुनरावर्तन होता है, इस अर्थ में संस्कार 'वासना' का पर्यायवाची है। वैशेषिकों ने चौबीस गुणों में से इसको एक माना है ।
हिन्दी कोश के अनुसार संस्कार के निम्न अर्थ घटित होते हैं- शुद्धि, परिष्कार, सुधार, मन, रूचि, उन्नत कार्य, मनोवृत्ति या स्वभाव का शोधन, पूर्वजन्म की वासना या पूर्वजन्म की कुल मर्यादा, शिक्षा, सभ्यता आदि का मन पर पड़ने वाला प्रभाव।
संस्कृत साहित्य में ‘संस्कार' शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहृत हुआ हैशिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य, पूर्णता, व्याकरण सम्बन्धी शुद्धि, संस्करण, परिष्करण, शोभा, आभूषण 10, प्रभाव, स्वरूप, स्वभाव, क्रिया, छाप, स्मरण शक्ति, स्मरण शक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव 11, शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि-विधान'2, अभिषेक, विचार, भावना, धारणा, कार्य का परिणाम, पुण्य आदि।
शास्त्रकारों ने मानव जीवन को पवित्र और उत्कृष्ट बनाने के लिए समयसमय पर होने वाले षोडश धार्मिक कृत्यों को संस्कार माना है । प्राय: इसी अर्थ में 'संस्कार' शब्द का प्रयोग किया गया है। मेदिनीकोश के अनुसार 'संस्कार' शब्द का अर्थ है- प्रयत्न, अनुभव अथवा मानस कर्म । न्याय शास्त्र के मतानुसार गुण विशेष का नाम संस्कार है, जो तीन प्रकार का होता है - वेगाख्य संस्कार, स्थिति स्थापक संस्कार और भावनाख्यस संस्कार । काशिकावृत्ति के