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अध्याय
संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता
भारतीय संस्कृति में संस्कारों की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। संस्कारों की यह प्रणाली अति प्राचीन काल से चली आ रही है। सही अर्थों में मानव कल्याण की भावना से जितने भी आयोजन एवं अनुष्ठान किये जाते है, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण परम्परा संस्कारों का पालन एवं पर्वों का आयोजन है । संस्कार क्रिया और धर्म अनुष्ठानों के द्वारा व्यक्ति एवं परिवार को तथा पर्व-त्यौहारों के माध्यम से समाज को प्रशिक्षित किया जाता है।
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सामान्यतया हम अनुभव करते हैं कि स्वाध्याय, सत्संग, प्रशिक्षण, चिन्तन, सम्यक विचार आदि का प्रभाव मनुष्य की मनोभूमि पर पड़ता है और उनसे व्यक्ति के भावना स्तर को विकसित करने में सहायता मिलती है। मानव चेतना को उच्च प्रयोजन के लिए उल्लसित एवं वैराग्यवासित बनाने के कुछ मनोवैज्ञानिक साधन होते हैं और उनका महत्त्व स्वाध्याय, सत्संग, सामायिक, प्रतिक्रमण, जप आदि की तुलना में किसी भी प्रकार से कम नहीं है। व्यक्तित्व निर्माण के इन साधनों को ही 'संस्कार' कहा जा सकता है।
संस्कार वे उपचार हैं, जिनके माध्यम से मनुष्य को सुसंस्कृत एवं सभ्य बनाया जाता है। जो व्यक्ति सुसंस्कारित होता है, उसका जीवन सामाजिक, धार्मिक एवं पारिवारिक क्षेत्र में स्व-पर के लिए बहु उपयोगी बनता है। अस्तु, संस्कार जीवन निर्माण की अद्भुत कला है ।
संस्कार शब्द की आर्थिक मौलिकता
'संस्कार' शब्द की उत्पत्ति 'सम्' उपसर्ग पूर्वक, 'कृ' धातु से भाव और करण में 'घञ्' प्रत्यय के योग से, भूषण अर्थ में 'सुट्' का आगम करने पर हुई है।
संस्कार शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया गया है। संस्कार का सामान्य अर्थ है - पूर्ण करना, संस्कारित करना, मांजना । 1 कौषीतकि 2, छान्दोग्य' और