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________________ 258...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन __ धार्मिक दृष्टि से- भारतीय संस्कृति नारी को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। नारी को पूज्य के रूप में स्वीकारा गया है। वय क्रम के आधार पर अपने से छोटी स्त्री को 'बेटी' समान वय वाली को 'बहन' और अधिक वय वाली को 'माता' शब्द से सम्बोधित करते हैं। यह अवधारणा जीवन व्यवहार में आज भी दृष्टिगोचर होती है। इस अवधारणा का आधार नारी के शील और सम्मान की रक्षा करना है। एक प्रसिद्ध मुस्लिम नेता ने भारतीय विवाह पद्धति के धार्मिक स्वरूप को प्रस्तुत करते हुए कहा है-“जैन और हिन्दू संस्कृति में स्त्री-पुरूष का विवाह उनके शरीरों से नहीं होता, उनकी आत्माओं से होता है। शरीर तो नष्ट हो जाते हैं, किन्तु उनके मत में आत्मा अमर है, इसलिए उनका प्रेम मरता नहीं है। उनमें तलाक की प्रथा नहीं है। एक बार विवाह होने पर जीवन पर्यन्त बना रहता है।14" दूसरी ओर, मुसलमानों में निकाह दो शरीरों के बीच होता हैं। वह सम्बन्ध स्थाई नहीं होता। वहाँ तलाक की प्रथा है। तीन बार तलाक शब्द कहने मात्र से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाते हैं। यही कारण है कि पति-पत्नी के सम्बन्धों में न तो स्थायित्व रहता है और न ही दाम्पत्य-निर्वाह का गुण ही मौजूद रहता है। यूरोप में विवाह एक समझौता है। वहाँ पहले प्रेम होता है, तब विवाह होता है। हमारे देश में पहले विवाह होता है, फिर प्रेम होता है। समझौता एवं तलाक की भावना लेकर चलने वालों में एक-दूसरे के प्रति समर्पण के भाव के विकास की दृष्टि हो नहीं सकती। वैवाहिक सम्बन्ध के बिना संतान का असली पिता कौन है? यह पता लगाना भी मुश्किल हो जाता है, तब वे पिता अपने बच्चों के प्रति किस प्रकार कर्त्तव्य निभा सकते हैं? जबकि भारतीय संस्कृति में विवाह को एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में स्वीकारा गया है। यहाँ विवाह धार्मिक विधि-विधान से होता है। आज यूरोपियन सभ्यता में दो दोस्तों के करार से अधिक विवाह का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। चूंकि वह संस्कृति भोग पर केन्द्रित है, अत: वहाँ विवाह एक सौदा बन गया है, किन्तु प्राचीनकाल में वहाँ भी विवाह जीवन पर्यंत का सम्बन्ध होता था। ईसाई धर्म भी विवाह को त्याग एवं समर्पण का प्रतीक ही मानता है। भारतीय संस्कृति में विवाह संस्कार को धार्मिक इसलिए माना जाता है कि यहाँ स्त्री एक मात्र पति के प्रति समर्पित होती है, अन्य पुरूष की मन से भी इच्छा नहीं करती, क्योंकि
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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