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________________ विवाह संस्कार विधि का त्रैकालिक स्वरूप ...257 में माने गए हैं। हर एक व्यक्ति के जीवन का यही लक्ष्य होता है कि वह धर्म की प्राप्ति करे, फिर धर्म द्वारा अर्थ का उपार्जन करे, इन दोनों के सहकार से काम की पूर्ति करे और फिर मोक्ष के लिए प्रयत्न करे। इन चारों में धर्म का स्थान सर्वप्रथम है और बाद में अर्थ, काम और मोक्ष का स्थान है। इससे निर्णीत होता है कि धर्म शेष पुरूषार्थ के लिए बीज का काम करता है। एक दृष्टि से यह कह सकते हैं कि धर्म के बिना अर्थ एवं काम की तात्कालिक पूर्ति हो सकती है, किन्तु मोक्ष तो धर्म के बिना प्राप्त नहीं हो सकता है। इस प्रकार पुरूषार्थ चतुष्टय में धर्म का प्रथम स्थान है। धर्म का अत्यन्त व्यापक अर्थ है। आधुनिक-युग में धर्म को पूजा-पाठ की परिधि के अन्तर्गत मान लिया गया है, यह हमारी भूल है। धर्म शब्द का अर्थ- 'धारयति इति धर्म' अर्थात जो धारण करें, वही धर्म है।13 वैवाहिक संस्कार द्वारा पुरूषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति सरलतया हो जाती है। इसके लिए बाह्य प्रयास की अपेक्षा नहीं रहती है, क्योंकि इस संस्कार के माध्यम से इनकी प्राप्ति हेत् एक स्वाभाविक वातावरण स्वत: निर्मित हो जाता है। इस तरह धर्मादि पुरूषार्थ की प्राप्ति करना विवाह संस्कार का श्रेष्ठ उद्देश्य कहा जा सकता है। गृहस्थ धर्म सम्बन्धी नियम मर्यादाओं एवं आचार का समुचित परिपालन करना तथा उन क्रियाकलापों को समझना एवं तदनुसार जीवन यात्रा के पथ को सुगम एवं सुखद बनाना इसका प्रमुख उद्देश्य प्रतीत होता है। विभिन्न अपेक्षाओं से विवाह संस्कार का महत्त्व विवाह एक संस्कार है, एक धर्मनीति है, एक लौकिक रिवाज है, जीवन परिष्कार का यज्ञ है, शारीरिक सुखों का केन्द्र है, गृहस्थ जीवन का आश्रय स्थल है। यह संस्कार विभिन्न दृष्टियों से अपना महत्त्व रखता है। संस्कार स्वयं एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। जिस प्रकार खान से निकलने वाले सोने को सोलह तापं देकर शुद्ध सोना बनाया जाता है, उसी प्रकार गर्भ से मृत्यु तक सोलह संस्कारों द्वारा मनुष्य के जीवन को सुसंस्कारित किया जाता है। जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े को अग्नि द्वारा संस्कारित करके उसे पकाया जाता है और पाषण या धातु की प्रतिमा को मंत्रों द्वारा संस्कारित करके उसमें भगवान् की प्रतिष्ठा की जाती है, वैसे ही विवाह आदि प्रसंगों के माध्यम से मन्त्रोच्चार पूर्वक मनुष्य के जीवन को संस्कारित किया जाता है, अतएव जीवन की विकास यात्रा के लिए संस्कारों का महत्त्व स्वीकारना होगा।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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