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________________ 256...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन जैन परम्परा के भगवती, प्रश्नव्याकरण, औपपातिक, राजप्रश्नीय13 आदि आगम ग्रन्थों में विवाह संस्कार को उत्सव-आयोजन पूर्वक सम्पन्न करने के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। जैन मान्यतानुसार इस युग में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान ने इस संस्कार का प्रारम्भ किया था। वैदिक परम्परा के आश्वलायन, पारस्कर, बौधायन आदि गृह्यसूत्रों में विवाह को पहला संस्कार कहा गया है अर्थात इस संस्कार को सोलह संस्कारों में पहला स्थान दिया है। गृह्यसूत्रों की अवगणना वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में की जाती है। इस दृष्टि से वैदिक परम्परा में भी यह संस्कार अति प्राचीनकाल से किया जाता रहा है-ऐसा सिद्ध होता है। ___ इस सम्बन्ध में यह कह पाना मुश्किल है कि इसका उद्भव कब और किन परिस्थितियों में हुआ। यद्यपि वैदिक ग्रन्थों एवं जैन धारणाओं के आधार पर यह कह सकते हैं कि इस संस्कार का उद्भव न केवल यौन सम्बन्धों को लेकर हुआ अपितु संतान प्राप्ति के आदर्श की पृष्ठभूमि मुख्य थी। विवाह के उद्भव के मूल में संभवत: यौन-सम्बन्धों का नियंत्रण और पारिवारिक सुरक्षा संबंधी कारण भी विवाह संस्कार के मूलभूत उद्देश्य विवाह गृहस्थाश्रम का सर्व प्रमुख संस्कार है। इस संस्कार के मुख्य तीन उद्देश्य हैं- 1. अनर्गल प्रवृत्ति का निरोध 2. सन्तानोत्पत्ति द्वारा वंश की रक्षा एवं 3. भगवत्प्रेम का अभ्यास अर्थात इस संस्कार का प्राथमिक उद्देश्य संयम पूर्वक जीवन निर्वाह करते हुए, वंश परम्परा को स्थायित्व प्रदान करना तथा दो आत्माओं के संयोग से उस महती शक्ति का निर्माण करना रहा है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन विकास में सहायक सिद्ध हो सके। विवाह संस्कार का एक उद्देश्य यह भी है कि पति-पत्नी परस्पर एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का आदान-प्रदान करते हुए दो पहियों की तरह प्रगति पथ पर अग्रसर होते चले जाएं। वासना की परिपूर्ति करना दाम्पत्य जीवन का मूल नहीं है। वास्तव में दाम्पत्य जीवन में वासना का अत्यन्त तुच्छ स्थान है, दाम्पत्य का मूल लक्ष्य है-यौन सम्बन्धों का नियंत्रण या संयम। इस संस्कार का मूलभूत उद्देश्य चारों पुरूषार्थों की प्राप्ति करना भी रहा है। भारतीय दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार पुरूषार्थ चतुष्टय के रूप
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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