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________________ विवाह संस्कार विधि का त्रैकालिक स्वरूप ...259 धार्मिक-विधानों के अनुसार इससे स्त्री के शील का विनाश होता है। जब तक स्त्री की लज्जा और उसका शील सुरक्षित है, तभी तक स्त्री धर्मपत्नी, पतिव्रता और सती कहलाती है। भारतीय परम्परा में नारी 'सप्तपदी' के द्वारा अग्निदेवता और पंचों की साक्षी में जिस पुरूष के साथ विवाह करती है, उसे ही सर्वस्व के रूप में स्वीकार करती है। इतिहास साक्षी है कि मुस्लिम शासकों ने जब-जब हिन्दू राजाओं पर आक्रमण किया वे राजा प्रजा के साथ जी-जान से युद्ध के मैदान में कूद पड़े और उनकी रानियाँ एवं नगर की कुलवधुएँ अपने शील की रक्षा के लिए जलती हुई चिताओं में कूद पड़ी। लाखों नारियों ने लपलपाती हुई अग्नि ज्वाला में हँसते-हँसते अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। असलियत में हिन्दू-नारियों की सोच यह थी कि 'पति युद्ध में वीर गति को प्राप्त करेंगे, शत्रुओं से अपने शील की रक्षा करना कठिन होगा' इसलिए जलती चिताओं में कूदकर वे अपने प्राणों को गंवा देती थी। इस प्रकार वे प्राणों से भी मूल्यवान् अपने शील की रक्षा को मानती थी। विवाह का धार्मिक महत्त्व इसी कारण माना गया है कि वह भोग का नहीं, कामवासना के संयम का प्रतीक है। जैन धर्म ने विवाह संस्कार की शुद्धता को बनाए रखने के लिए यह तर्क दिया है कि पर पुरूष के साथ संसर्ग करने से रक्तशुद्धि या पिण्डशुद्धि नहीं रह सकती, अतएव भारतीय परम्परा में विवाह का सम्बन्ध धर्म, सदाचार, शील एवं निष्ठता से रहा है। नैतिक दृष्टि से - विवाह संस्कार सम्पन्न होने के बाद गृहस्थ धर्म का आरम्भ होता है। गृहस्थ धर्म विशुद्ध आचार और पवित्र जीवन का शुभारम्भ है। भुक्ति और मुक्ति, प्रवृत्ति और निवृत्ति- ये दो धाराएँ प्राच्यकालीन है। इनमें भक्ति मार्ग गृहस्थ धर्म से सम्बन्धित है और वह प्रवृत्तिमार्गी होने के बावजूद भी इस धारा में इतनी नैतिकता और पवित्रता है, जो स्वयं निवृत्तिधारा में परिवर्तित हो सकती है। गृहस्थ जीवन विशाल संभावनाओं से भरा पूरा है । सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा गृहस्थ ही सुगमता पूर्वक कर सकता है। यह विवाह धर्म सागार धर्म कहलाता है। न्याय नीतिपूर्वक धर्म का पालन भी अनेक उपलब्धियों में हेतुभूत बनता है। इसके परिणाम स्वरूप परिवार और वंश
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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