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________________ 254...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन रखना संभव नहीं है। साथ ही हिन्दू परम्परा में 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' के अनुसार पुत्र की प्राप्ति हेतु विवाह आवश्यक है। स्मृति ग्रन्थों के आधार पर आश्रम व्यवस्था को ईश्वरीय विधान माना गया है और फलस्वरूप उसका पालन करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए धार्मिक कर्त्तव्य बनता है अत: इस कर्त्तव्य का परिपालन करने हेतु यह संस्कार अनिवार्य रूप से किया जाता होगा। व्यक्तित्व-विकास के लिए भी गृहस्थाश्रम अनिवार्य माना गया है। गृहस्थाश्रम(विवाह) की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए मनुस्मृतिकार ने कहा है- आयु का आद्य भाग गुरुकुल में, द्वितीय भाग विवाहयुक्त गृहस्थाश्रम में, तृतीय भाग वन में और चतुर्थ भाग के समय समस्त सांसारिक संगों का त्यागकर संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिए।' हारीत ने कहा है- जो व्यक्ति उक्त विधि के अनुसार आश्रमों का पालन करता है, वह समस्त लोकों पर विजय प्राप्त कर ब्रह्मलोक प्राप्त करने में समर्थ होता है। दक्ष के अनुसार- प्रथम तीन आश्रमों का व्यतिक्रम नहीं किया जा सकता। जो इसके विपरीत आचरण करता है, उससे अधिक पापी संसार में कोई नहीं है।10 अस्तु, विवाह संस्कार सामाजिक संगठन का मूल केन्द्र है। जिस प्रकार समस्त जन्तु अपने जीवन के लिए वायु पर आश्रित हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं। इस दृष्टि से भी विवाह संस्कार की आवश्यकता सिद्ध होती है। यदि हम प्राचीन काल पर दृष्टिपात करते हैं, तो ज्ञात होता है कि आरम्भ में वंश की अक्षुण्णता बनाए रखने के लिए सन्तानोत्पत्ति ही विवाह का प्रमुख उद्देश्य था। देवताओं की पूजा और पितरों का श्राद्धकर्म सन्तान पर ही अवलम्बित था, जो केवल विवाह द्वारा ही किया जा सकता था। शनैः शनैः विवाह के लिए सामाजिक और आर्थिक कारण भी अपेक्षित बन गए, किन्तु आज तो कामवासना की संतुष्टि ही अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है। यह भी विवाह संस्कार की आवश्यकता को परिपुष्ट करता है। यदि हम अन्य धर्मों एवं अन्य देशों के आधार पर इस संस्कार की आवश्यकता को व्याख्यायित करना चाहें, तो उसके प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। यूनान में विवाह को अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखा जाता है और उसे एक पवित्र संस्कार समझा जाता है। उनका मानना है कि विवाह द्वारा वंश-परम्परा
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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