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________________ विद्यारम्भ संस्कार विधि का रहस्यात्मक स्वरूप ...243 प्रत्येक विधा में निहित है, इसीलिए व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य को पारलौकिक-शक्तियों से जोड़ा गया है, जिससे व्यक्ति के उत्साह एवं विकास में वृद्धि होती है। विद्यारम्भ संस्कार पाँच वर्ष की अवधि के बाद ही क्यों? विद्यारम्भ संस्कार बालक की पाँच वर्ष की आयु अथवा उसके पश्चात करने का यह कारण हो सकता है कि प्रारम्भ के पाँच वर्षों तक शिशु का जीवन लाड़-प्यार से भरा होता है। इस अवधि में उसकी चपलता, अज्ञानता एवं चित्त की अस्थिरता पराकाष्ठा पर होती है। सामान्यत: पाँच वर्ष के बाद ही बच्चे की बुद्धि परिपक्व होने लगती है, उसमें ग्राह्य शक्ति का आविर्भाव होने लगता है इसीलिए भारतीय परम्परा में विद्यारम्भ के लिए उपयुक्त समय पाँचवां वर्ष या उसके बाद का समय स्वीकार किया गया है। वर्तमान युग कम्प्यूटर का युग है। वर्तमान जीवन शैली भी द्रुतगतिमान हो गई है। तदनुरूप विद्याध्ययन का आरंम्भ भी निर्दिष्ट अवधि के पूर्व होने लग गया है। अब तो ढाई-तीन वर्ष के बच्चे को ही स्कूल में भर्ती कर देते हैं। यह कितना सही और सार्थक परिणाम दे सकेगा, यह समयाधीन है। इस प्रकार यह संस्कार एवं तत्सम्बन्धी विधि-विधान रहस्यपूर्ण प्रयोजनों को लिये हुए हैं। विद्यारम्भ संस्कार का तुलनात्मक विश्लेषण जब हम विद्यारंभ संस्कार का तुलनात्मक विवेचन करते हैं तो श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा की बहुत-सी समानताएँ और असमानताएँ स्वत: परिलक्षित हो जाती हैं। साथ ही इस संस्कार की मूल्यवत्ता का दिग्दर्शन भी हो जाता है। ____ नाम की दृष्टि से- यह संस्कार तीनों परम्पराओं में स्वीकारा गया है, किन्तु नाम को लेकर आंशिक भिन्नता है। श्वेताम्बर परम्परा में इसका नाम अध्ययनारम्भ, दिगम्बर में लिपिसंख्यान एवं वैदिकधर्म में विद्यारंभ है। यहाँ ज्ञातव्य है कि इस संस्कार में नाम की दृष्टि से भिन्नता होने पर भी अर्थ की दृष्टि से कोई भिन्नता नहीं है। तीनों परम्पराओं का तात्पर्य बालक को विद्याध्ययन प्रारंभ करवाना है।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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