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________________ 242... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन उपार्जित की जाती हैं। चिन्तन, मनन, सत्संग आदि भी मानसिक विकास के लिए श्रेष्ठ उपाय हैं पर उन सबका मूल शिक्षा ही है। शिक्षा के बिना मस्तिष्क का इतना विकास भी नहीं हो पाता है कि वह महत्त्वपूर्ण विषयों की भूमिका को ठीक से समझ सके। वह शिक्षा ही है, जो मनुष्य - शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण मस्तिष्क को विकसित कर सकती है तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलताओं के द्वार खोल सकती है, इसलिए इस संस्कार में सरस्वती की उपासना, अर्चना, मन्त्र श्रवण आदि कृत्य अनिवार्य रूप से किए जाते हैं । देवी-देवताओं की आराधना क्यों? जैन एवं वैदिक दोनों परम्पराओं के बहुत से अनुष्ठान उस प्रकार के हैं जिनके प्रारम्भ, मध्य या अन्त में देवीदेवताओं का स्मरण, पूजन और उनकी आराधना आदि अवश्य की जाती है। इसके पीछे भी एक रहस्य है । हमारी संस्कृति प्रत्येक वस्तु को परोक्ष की सत्ता से जोड़ती हैं, पुरुषार्थ के अलावा परमार्थ का भी अस्तित्व स्वीकारती हैं अतः विद्यारम्भ संस्कार में अक्षरारम्भ से पूर्व कुछ देवी-देवताओं की अर्चना की जाती है, वैदिक परम्परा में प्रस्तुत संस्कार के समय विष्णु, सरस्वती एवं लक्ष्मी की पूजा प्रमुखतः मानी गई है। उनकी अवधारणा के अनुसार लक्ष्मी प्रेयस मार्ग की प्रतिनिधि है सरस्वती श्रेयस् मार्ग की अधिष्ठात्री है एवं विष्णु दोनों के मध्य एक विलक्षण समन्वय स्थापित करने वाले समन्वयक के रूप में अवस्थित हैं। इस प्रकार वह बालक इन तीनों तत्त्वों की पूजा के द्वारा उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित कर अक्षरारम्भ के माध्यम से श्रेयोमार्ग व प्रेयोमार्ग की समन्वयात्मक स्थिति में पहुँचने की ओर प्रयत्नशील बनता है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि किसी भी कार्य में देवी- देवताओं की आराधना अन्धविश्वास की उपज नहीं कही जा सकती। इसमें भी वैज्ञानिकता निहित है। लौकिक व्यवहार में नित्यप्रति अनुभव किया जाता है कि किसी भी कार्य के समय व्यक्ति को यदि विश्वास हो कि मेरे पीछे एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण शक्ति सहायता करने वाली है तो वह व्यक्ति दुगने उत्साह एवं विश्वास के साथ अपने लक्ष्य में प्रवृत्त होता है, ठीक इसके विपरीत कोई विशिष्ट आदमी भी किसी सामान्य कार्य को करते समय भी यदि अकेलापन महसूस करने लगे तो कभी - कभी उसकी हिम्मत टूटने लगती है। ऐसा अनुभव हमें कार्य जगत् के प्रत्येक क्षेत्र में होता है, यही तथ्य भारतीय संस्कृति की
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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