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236...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन भेड़ियों जैसी ही है। मनुष्य की तरह रहने, सोचने, बोलने की जानकारी उसे कराई जा रही है।
हम आदिम-जाति या जनजाति के लोगों के बच्चों और सुसंस्कृत लोगों के बच्चों में जो अन्तर देखते हैं, वह उनका जन्मजात नहीं, वरन् वातावरण और संगति के प्रभाव का फल है। इस दृष्टि से विद्याध्ययन संस्कार की आवश्यकता स्वत: प्रमाणित है।
विद्यारंभ संस्कार की अनिवार्यता का छठवाँ कारण यह भी है कि मनुष्यों द्वारा कमाई और जमा की गई धन-सम्पदा तो कालक्रम में नष्ट हो जाती है पर उनके द्वारा उपार्जित ज्ञान- सम्पदा वंश परम्परा से सुरक्षित रहती है। साथ ही उसकी एक विलक्षण विशेषता यह है कि जो भी चाहे, उस महान् ज्ञानकोश को बिना किसी मूल्य या उत्तराधिकार के प्राप्त कर सकता है। यह भी एक मजेदार बात है कि पूर्वजों के धन को तो उनके वंशज या उत्तराधिकारी ही प्राप्त कर सकते हैं, पर ज्ञान भण्डार किसी भी व्यक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, इसमें मात्र गुरु कृपा ही पर्याप्त है। दूसरी बात, ज्ञान ऐसी वस्तु है, जो देने से वृद्धि को प्राप्त होता है, नष्ट नहीं होता है। इस संस्कार के सम्बन्ध में यह मननीय है कि जो जितना अधिक जानता है, वह जीवन क्षेत्र में उतना ही अधिक सफल रहता है, अतएव ज्ञानवान् होना ही सच्चे अर्थों में सामर्थ्यवान् एवं सम्पत्तिवान् बनना है। यह विद्याध्ययन के माध्यम से ही संभव है, इसलिए पढ़ना-पढ़ाना मनुष्य का अत्यन्त आवश्यक कर्त्तव्य है।
जैसे शरीर का सामर्थ्य आहार पर आधारित है, वैसे ही मन की सामर्थ्यता विद्या द्वारा विकसित होती है। बालक के जन्म और प्रथम आहार की भाँति विद्याध्ययन के अवसर पर भी उत्सव मनाया जाता है। यह उत्सव आवश्यक भी है और सार्थक भी। बालक के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए शिक्षा का प्रकाश आवश्यक है। विद्या ज्ञानचक्षु का काम करती है। किसी को नेत्र नहीं मिले हों, पर विद्याभ्यासी है, तो वह निश्चित ही सन्मार्ग का अनुगामी होगा। साररूप में इतना कहना पर्याप्त है कि जो विद्या का पारगामी नहीं है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फल से वंचित रहना पड़ता है, इसलिए विद्या की प्राप्ति आवश्यक है।