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विद्यारम्भ संस्कार विधि का रहस्यात्मक स्वरूप ...235 इस संस्कार का चौथा प्रयोजन यह है कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इन प्रश्नों का उत्तर ज्ञान के आधार पर ही उपलब्ध किया जा सकता है इसलिए अध्यात्म साधना के तीन साधनों ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग में प्रथम स्थान ज्ञानयोग का ही रहा हुआ है। ज्ञान के बिना प्रगति की कोई सम्भावना नहीं रहती।5।
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि खाने-पीने, नहाने-धोने आदि शारीरिक प्रवृत्तियों का प्रकृतिप्रदत्त ज्ञान पशु पक्षियों और कीट-पतंगों को भी होता है, तब उन्हें अज्ञानी की संज्ञा में कैसे रखा जाए? इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे सांस लेने, आहार पचाने आदि की क्रियाएँ हर शरीरधारी को शरीरधर्म के रूप में स्वत: ही मिली होती हैं, किन्तु जो मात्र इतना ही जानते हैं कि वस्तुत: वे शरीरधर्मी हैं, उनका स्तर पशु से ऊपर नहीं है। ज्ञान तो चेतना के बौद्धिक विकास को कहते हैं और इसी पर व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व का विकास आधारित होता है। विकसित व्यक्तित्व ही मनुष्यता की शोभा है अत: व्यक्तित्व विकास के लिए एवं मानवीय जीवन को उच्चस्तरीय बनाने के लिए विद्याध्ययन करना अति आवश्यक सिद्ध होता है।
इस संस्कार की आवश्यकता का पांचवाँ कारण यह भी माना जा सकता है कि इसके माध्यम से बालक को अध्ययन का एक अनुकूल वातावरण मिलता है। यूं तो ज्ञान की सत्ता अंकुर-रूप में प्रत्येक मानवीय-चेतना में है, पर उनका विकास तभी संभव है, जब अनुकूल परिस्थितियों का सिंचन हो। यह सिंचन गुरु के सान्निध्य से ही संभव है। यह प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है कि छोटा बालक जिन परिस्थितियों में रहता है, वह उसी प्रकार से ढल जाता है। इस सम्बन्ध में एक घटना समाचार-पत्रों में छपी है कि कुछ दिन पूर्व आगरा जिले के खन्दौली गाँव से एक बालक को एक मादा भेड़िया उठा ले गई। उसने उसे शारीरिक क्षति नहीं पहुंचाई, बल्कि उसे अपना दूध पिलाकर उसका पालन किया। बच्चा छः वर्ष का हो गया। शिकारियों ने उस बच्चे को भेड़ियों की माँद में देखा तो उसे पकड़ लिया। यह बालक आजकल लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में है, उसका नाम रामू रखा गया है। बचपन से ही जैसा उसने सीखा, वह भेड़ियों की तरह ही चलता है, वैसे ही गुर्राता है, वैसे ही कच्चा माँस खाता है, उसकी सारी आदतें