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________________ 224... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन यज्ञोपवीत के धारण का उद्देश्य और लक्ष्य भी यही रहा है अतः इसके मूल में प्रणव मन्त्र के साथ लगाई जाने वाली ग्रन्थि उसे प्रणव के अ +उ + म्-इन तीन वर्णों; सत्त्व, रज, तम - इन तीन गुणों; ब्रह्मा, विष्णु, महेश- त्रिविध शक्तियों के सामीप्य का ध्यान दिलाती रहती है इसीलिए इसे ब्रह्म ग्रन्थि कहा गया है। अपने-अपने कुल, गोत्र आदि के भेद से ब्रह्म ग्रन्थि के ऊपर 1, 3 या 5 गांठ लगाए जाने का भी विधान है। ये ग्रन्थियाँ मनुष्य को अपनी कुल परम्परा से चली आ रही शास्त्र मर्यादाओं का स्मरण कराती है तथा पूर्वजों के पद चिह्नों पर चलने की प्रेरणा देती है। उपनयन की अनिवार्यता जब हम उपनयन संस्कार के क्रियाकलापों से परिचित होते हैं तो इसकी अनिवार्यता के कई कारण नजर आते हैं। सर्वप्रथम इसकी पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक कारण हैं। किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए शिक्षा आवश्यक है। इसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का कुछ काल गुरुकुल या किसी शिक्षा संस्था में व्यतीत करने के लिए तत्पर बनता है। इसके द्वारा साहित्य, विद्या और ज्ञान के कोश का संरक्षण एवं वृद्धि होती है अतः अपनी संस्कृति एवं पवित्र साहित्य की सुरक्षा के लिये उपनयन संस्कार अनिवार्य प्रतीत होता है । उपनयन संस्कार की एक अन्य कारण पवित्रता है। उपनयन में भावी जीवन को पवित्र करने की शक्ति है, इसलिए उससे स्वयं को अवश्य अभिषिक्त करना चाहिए। इस संस्कार की अनिवार्यता इस दृष्टि से भी ज्ञात होती है कि उपनयन से व्यक्ति द्विज अर्थात संस्कारित बनता है। इससे उपनीत व्यक्ति की समाज में उच्च स्थान गौरव एवं सम्मान प्राप्त होता है । जिस व्यक्ति का उपनयन न हुआ हो, वह समाज से बहिष्कृत तथा अपने सभी प्रकार के विशेषाधिकारों से वंचित हो जाता है। उपनयन संस्कार एक प्रकार से अपने-अपने धर्म या वर्ण का प्रवेश - - पत्र है। समाज में प्रविष्ट होने का इसे एक साधन माना गया है, क्योंकि हिन्दुओं की मान्यतानुसार उपनीत हुए बिना कोई व्यक्ति आर्य कन्या से विवाह नहीं कर सकता है। इस प्रकार हिन्दुओं की आदर्श सामाजिक योजना में उपनयन संस्कार को शिक्षा एवं सामाजिक जीवन का अनिवार्य अंग माना गया है इसे सामाजिक व्यवस्था में प्रवेश करने का License कह सकते हैं। उपनयन की अनिवार्यता के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके द्वारा दीक्षित व्यक्ति की गणना द्विजों में होती है, जो एक पवित्र,
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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