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________________ उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप...223 रहने के कारण उनसे प्रभावित होता रहता है। इन सभी पदार्थों की संख्या का समन्वित योग किया जाए, तो यह भी 96 ही होता है। जैसे- तिथि-15, वार7, नक्षत्र-27, तत्त्व-25, वेद-4, गुण-3, काल-3 और मास-12 ऐसे कुल योग 96 आता है। यज्ञोपवीत में तीन सूत्र और त्रिवृत् क्यों? जैन धर्म में तीन की संख्या दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय की प्रतीक हैं। हिन्दू धर्म में आध्यात्मिक, आधि दैविक एवं आधि भौतिक शक्तियों का प्रतीक है। ऋक्, यजुः और सामतीन प्रमुख वेद हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश-त्रिदेव हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य-तीन काल है। सत्त्व, रज और तम-तीन गुण हैं। ग्रीष्म, वर्षा और शीततीन ऋतुएँ हैं। पृथ्वी, अन्तरिक्ष और धुलोक-त्रिलोक हैं। इसी त्रिगुणात्मक भाव को आधार बनाकर यज्ञोपवीत का त्रिगुणात्मक तन्तुओं से निर्माण और त्रिवृत्करण किया गया है। तीन सूत्रों में मानवत्व, देवत्व और गुरुत्व-भाव निहित हैं। इन्हीं की प्रेरणा, मार्गदर्शन और शिक्षा से व्यक्ति मृत्युलोक से धुलोक की ओर गमन करने के लिए उपासना, ध्यान और सत्कर्म का भाव अपनाता है। यही व्यक्ति के निर्वाण के मार्ग को प्रशस्त करता है। इसी भावना से उपवीत के तीन तारों का निर्माण किया जाता है।101 यज्ञोपवीत का प्रन्थि बंधन क्यों ? यज्ञोपवीत बनाते समय नौ तन्तुओं को त्रिगुणात्मक कर, फिर तीन सूत्र में परिवर्तित कर, उसका त्रिवृत्करण करके उसके मूल भाग को जोड़ने के लिए गांठ लगाई जाती है। हिन्दू धर्म में इस गांठ को 'ब्रह्म ग्रन्थि' की संज्ञा दी गई है। इस ब्रह्म ग्रन्थि के लगने पर ही यज्ञोपवीत धारण करने योग्य बनता है। डॉ. शिवदत्त के अनुसार ब्रह्म ग्रन्थि को लगाने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य प्रतिक्षण ध्यान में रखें कि यह समस्त विश्व ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है। यदि मनुष्य ब्रह्म को भुलाकर माया जाल में फंस जाता है, तो वह अपने ही पतन का कारण बन सकता है।102 उसे प्रचलित लोकोक्ति ‘गांठ बांध लेना' को ध्यान में रखते हुए एक गांठ बांध लेना चाहिए, क्योंकि मनुष्य का चरम लक्ष्य ब्रह्म प्राप्ति ही है और इसे प्राप्त करने के लिए उसे श्रेय मार्ग पर चलते रहना होगा।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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