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210... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
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करना।76 दिवस में सहवास नहीं करना एवं रात को वृक्ष के पास नहीं रहना । व्रतादेश-विधि सम्पन्न होने पर शिष्य जिनबिम्ब की प्रदक्षिणा करे । पूर्वदिशा के सम्मुख होकर णमुत्थुणसूत्र बोले । • फिर 'नमोऽस्तु' शब्द पूर्वक नमस्कार कर गुरु से निवेदन करें - “हे भगवन्! आपके द्वारा मुझे व्रतादेश दिया गया है” तब गुरु कहे - 'दत्तः सुगृहीतोऽस्तु, सुरक्षितोऽस्तु । स्वयं तर, परान् तारय संसार सागरात्’। फिर गुरु और शिष्य - दोनों चैत्यवन्दन करें।
• आचार्य वर्धमानसूरि ने व्रतादेशधारी ब्रह्मचारी के लिए कुछ नियम इस प्रकार बताए हैं-दंड और वल्कल को धारण किया हुआ ब्राह्मण आठ वर्ष से लेकर सोलह वर्ष तक भिक्षावृत्ति द्वारा जीवन निर्वाह करे । क्षत्रिय दस वर्ष से लेकर सोलह वर्ष तक स्वयं ही भोजन पकाएं। वैश्य बारह वर्ष से लेकर सोलह वर्ष तक स्वकृत भोजन ही करे। यदि इतने दिन पूर्वोक्त प्रकार से रहना संभव न हो तो छ: माह, एक माह, पन्द्रह दिन, तीन दिन तक रहे, उतना भी शक्य न हो तो उसी दिन व्रत विसर्ग करे |
व्रत विसर्ग विधि
यहाँ व्रत विसर्ग का तात्पर्य है - निर्दिष्ट अवधि के पूर्ण होने पर मौंजी, कौपीन, वल्कल और दंड का विसर्जन करना यानी पूर्वगृहीत इन वस्तुओं का त्याग करना। 77
• व्रत-विसर्ग करने वाला उपनीत शिष्य तीन-तीन प्रदक्षिणा पूर्वक चा दिशाओं में पूर्ववत शक्रस्तव पाठ द्वारा चैत्यवंदन करे। • फिर गुरु से व्रत विसर्ग का आदेश लें। तब गुरु मन्त्र पूर्वक आदेश दें। • उसके बाद शिष्य नमस्कारमन्त्र का स्मरण करते हुए मेखला, कौपीन, वल्कल और दंड को गुरु के आगे रख दे।
• उसके बाद गृहस्थ गुरु शिष्य के लिए उपनयन की महिमा का व्याख्यान करे। उसमें यह बताएं कि सर्वप्रथम श्रीऋषभदेव प्रभु ने तीन वर्णों के लिए यह उपवीत धारण करने हेतु कहा था। उसके बाद तीर्थोच्छेद होने से ब्राह्मण मिथ्यात्वी हो गए। उन्होंने हिंसा की प्ररूपणा की । वसुराज ने हिंसक यज्ञ मार्ग चलाया, तब से जिनोपवीत को 'यज्ञोपवीत' कहा जाने लगा, परन्तु जैन परम्परा में इसका नाम जिनोपवीत ही है अत: तुम्हें इसको अच्छी तरह से धारण करना चाहिए। • यदि प्रमादवश जिनोपवीत निकल जाए या टूट जाए, तो तीन