________________
उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ...207 आशीर्वाद एवं मन्त्र श्रवण- उसके बाद उपनीत शिष्य गृहस्थ गुरु की तीन प्रदक्षिणा दे। “नमोऽस्तु-नमोऽस्तु” कहकर गुरु चरणों में नमस्कार करे। तब गुरु 'निस्तारपारगो भव' कहते हुए आशीर्वाद प्रदान करे। . तदनन्तर गृहस्थ गुरु जिनप्रतिमा के आगे बैठकर और शिष्य को अपने बाईं ओर बैठाकर गंध और अक्षत से पूजित उसके दाहिने कान में अचिन्त्य प्रभावशाली पंचपरमेष्ठी मंत्र को तीन बार सुनाएं तथा शिष्य द्वारा भी तीन बार वह मन्त्र उच्चारित करवाएं। फिर नवकार मन्त्र का माहात्म्य सुनाएं।
• पुन: उपनीत शिष्य गुरु को नमस्कार करे। . उसके बाद गुरु को स्वर्ण का जिनोपवीत, सफेद रेशमी वस्त्र और स्वर्ण की मौंजी यथाशक्ति प्रदान करें। सकल संघ का भी तांबूल वस्त्र आदि द्वारा सत्कार करें। व्रतादेश विधि
श्वेताम्बर परम्परा में तीनों वर्गों के लिए पृथक्-पृथक् व्रतादेश विधि कही गई है। यहाँ व्रतादेश का तात्पर्य है - ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को अपने-अपने वर्ण के अनुसार पालन करने योग्य नियमों की प्रतिज्ञा दिलाना। इस व्रतादेश के अवसर पर सर्वप्रथम जिनोपवीत संस्कारी को निश्चित अवधि के लिए पलाशकाष्ठ का दंड दिया जाता है तथा हाथ में मुद्रिका पहनाई जाती है। ___पलाश काष्ठदंड प्रदान- यह विधि जिनोपवीत संस्कार के दिन आयोजित उत्सव में प्रतिमा के सम्मुख करे। • सर्वप्रथम गृहस्थ गुरु उपनीत के देह पर से उत्तरीय वस्त्र को दूर करें और काला मृगचर्म, वृक्ष का वल्कल या वस्त्र पहनाएं। • फिर उसके हाथ में पलाश-काष्ठ का दंड दें और उसे निम्न मंत्र से अभिमन्त्रित करें। पलाश काष्ठदंड को अभिमन्त्रित करने का मन्त्र इस प्रकार है72- “ॐ अर्ह ब्रह्मचर्यसि, ब्रह्मचारिवेषोऽसि, अवधिब्रह्मचर्योऽसि, धृतब्रह्मचर्योऽसि, धृताजिनदण्डोऽसि, बुद्धोऽसि, प्रबुद्धोऽसि, धृतसम्यकत्वोऽसि, दृढ़सम्यक्त्वोऽसि, पुमानसि, सर्वपूज्योऽसि, तदवधिब्रह्मव्रतम् आगुरुनिदेशं धारये: अहँ माँ” ।
मुद्रिका धारण- उसके बाद उपनीत को व्याघ्रचर्म या काष्ठासन के ऊपर बिठाएं। • फिर उसके दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली में दर्भ सहित स्वर्ण की अंगूठी पहनाएं। वह भी सोलह मासा परिमाण होनी चाहिए।73 • फिर उस