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उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ...185 परन्तु अन्यों को न तो करवा सकता है और न उन्हें करवाने की आज्ञा दे सकता है, एतदर्थ वैश्य को एक अग्र धारण करने की अनुज्ञा दी गई है। शूद्र रत्नत्रय की आराधना करने में असमर्थ होते हैं। इसी के साथ हीन कुलोत्पन्न, निःसत्वभाव एवं अज्ञानी होने के कारण उन्हें जिनाज्ञा रूप उत्तरीय धारण करने का ही विधान किया गया है। अन्य वणिक् आदि के लिए देव-गुरु-धर्म की उपासना के समय जिनाज्ञा रूप उत्तरासंग-मुद्रा धारण करने की अनुमति है।27
उक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि वर्ण एवं योग्यता के आधार पर ही उपवीत सूत्रों की संख्याएँ भिन्न-भिन्न बताई गईं हैं। अत: हम पाते हैं कि श्वेताम्बर ग्रन्थों में जिन उपवीत का स्वरूप, परिमाण, संख्या, प्रयोजन आदि का सुन्दर विश्लेषण किया गया है। दिगम्बर-परम्परा में उपवीत का स्वरूप
उपवीत का स्वरूप- दिगम्बर परम्परा में जिनोपवीत के सम्बन्ध में तीन प्रकार के उल्लेख मिलते हैं
1. यज्ञोपवीत सात लड़(सात सूत्रों) का गुंथा हुआ होना चाहिए, वह सात परम स्थानों का सूचक है।28
2. अर्हत्प्रतिष्ठासार संग्रह में यज्ञोपवीत का स्वरूप बताते हुए कहा है कि वह छियानवें मुट्ठियों से युक्त नवतारगर्भित (त्रिसूत्र) होना चाहिए। किन्हीं मतानुसार यज्ञोपवीत तीन लड़ (तीन सूत्र) युक्त सत्ताईस भेद वाला होना चाहिए अर्थात उसके प्रत्येक लड़ में नौ-नौ तंतु होने चाहिए।29
यज्ञोपवीत का परिमाण- दिगम्बर आचार्यों ने यज्ञोपवीत के परिमाण के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किए हैं। एक अवधारणा कहती है-यज्ञोपवीत एक सौ चालीस हाथ कच्चे सूत का बनाना चाहिए, उसको तिगुना करने पर साढ़े छियालीस हाथ से कुछ अधिक रहता है, फिर उसकी तीन लड़ बनाने पर पन्द्रह हाथ से कुछ अधिक लंबा रहता है, यह उत्कृष्ट परिमाण है। एक सौ आठ अंगुल का यज्ञोपवीत मध्यम परिमाण वाला कहलाता है। बालकों को जघन्य परिमाण वाला यज्ञोपवीत धारण करवाना चाहिए।30 ___एक विचारक के अनुसार यज्ञोपवीत कच्चे कमलदंड को तोड़ने से निकले हुए सूक्ष्म तंतु के समान चिकना, अखंड, सफेद, गांठ रहित एवं पवित्र तंतु का होना चाहिए। उस सूत्र को तीन लड़ बनाकर बटना चाहिए। इस प्रकार एक लड़ में तीन-तीन आवर्त कर सत्ताईस लड़ का यज्ञोपवीत बनाना चाहिए।31