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________________ 184... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन एक अग्र, शूद्र को उत्तरीय - वस्त्र एवं अन्य वणिक् आदि के लिए उत्तरासंग धारण करने की अनुज्ञा 25 जिनोपवीत कैसा हो ? आचारदिनकर के अनुसार कृतयुग में स्वर्णमय सूत्र का, त्रेतायुग में रजत का, द्वापरयुग में ताम्र का और कलियुग में कपास का यज्ञोपवीत धारण किया जाता है, परन्तु कुछ जैन आचार्यों के मतानुसार ब्राह्मणों के लिए स्वर्णसूत्र और क्षत्रिय - वैश्यों के लिए सर्वदा कपाससूत्र का उपवीत धारण करना चाहिए | 26 जिनोपवीत किसका प्रतीक ? श्वेताम्बर परम्परा में 'नवतंतु' ब्रह्मचर्य की नवगुप्ति के तथा 'त्रिसूत्र' दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप त्रिरत्न के प्रतीक माने गए हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जिनोपवीत जिनेश्वर भगवान की गार्हस्थ्य मुद्रा है अतः जो आत्माएँ(मुनि) नवब्रह्म की गुप्ति से संरक्षित और रत्नत्रय के पालन में रत हैं, उन्हें सूत्र रूप उपवीत को वहन करना आवश्यक नहीं होता है। जैसे सूर्य को दीपक दिखाने की और समुद्र को जलपात्र दिखाने की आवश्यकता नहीं होती है, उसी तरह निर्ग्रन्थ मुनियों को जिन उपवीत धारण करना आवश्यक नहीं होता है। मुनिजन नवब्रह्म की गुप्ति से युक्त एवं रत्नत्रय का त्रिकरणपूर्वक सदैव आदर करते हैं अतः उनके लिए त्रिसूत्र धारण करने का विधान नहीं है जबकि गृहस्थ नवब्रह्मगुप्ति एवं रत्नत्रय का श्रवण एवं चिन्तन कर उसका अंशत: पालन कर पाते हैं, इसलिए ब्रह्मगुप्तिरूप सूत्र मुद्रा को हृदय पर धारण करते हैं। जिनोपवीत की संख्या भिन्न-भिन्न क्यों ? जैसा कि पूर्व में कहा गया है ब्राह्मण को तीन क्षत्रिय को दो, वैश्य को एक अग्र धारण करना चाहिए- ऐसा निर्धारण किस आधार पर किया गया है ? इस सम्बन्ध में विचार करते हैं, तो ज्ञात होता है कि ब्राह्मण रत्नत्रय की आराधना स्वयं कर सकता है, दूसरों को करवा सकता है और अन्य की अनुमोदना भी कर सकता है इसलिए उसे तीन अग्र पहनने का अधिकार दिया गया है। क्षत्रिय रत्नत्रय की आराधना स्वयं कर सकते हैं और अन्यों से करवा भी सकते हैं, किन्तु अन्यों को करवाने की अनुज्ञा नहीं दे सकते, इस कारण उन्हें दो अग्र पहनने का निर्देश दिया गया है। वैश्य ज्ञान एवं भक्ति से सम्यक्त्व को ग्रहण कर अपनी सामर्थ्य के अनुरूप रत्नत्रय का स्वयं आचरण कर सकता है,
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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