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________________ उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ... 183 उपनयन और जिनोपवीत धारण करना चाहिए। उनके लिए भी यही विधि कही गई है। 23 उपवीत का स्वरूप विश्लेषण यज्ञोपवीत ब्राह्मण कन्या या कुमारी कन्या के हाथों से काते गए कपास के सूत के नौ तारों को तीन-तीन तारों में बटकर, उससे बनाए गए तीन सूत्र को 96 चौओं के नाप में एवं तीन वृत्तों में तैयार की गई माला है, जिसके मूल में गांठ लगाकर और परम्परागत मन्त्रों से अभिमन्त्रित कर देने के पश्चात उपवीत या यज्ञोपवीत नाम दिया जाता है। हिन्दू परम्परा में इसे निश्चित आयु, काल और विधान के साथ द्विज - बालकों को ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य व वानप्रस्थ- इन तीन आश्रम व्यवस्थाओं में श्रौत और स्मार्तविहित कर्म करने हेतु पिता, आचार्य या गुरु द्वारा निश्चित मन्त्र के साथ धारण करवाया जाता है। इसी के साथ बालक का दूसरा जन्म होता है और वह 'द्विज' कहलाने लगता है। इससे उपनीत बालक को विनश्वर स्थूल शरीर की अपेक्षा अविनाशी ज्ञानमय शरीर प्राप्त होता है। उपनयन संस्कार के अवसर पर बालक को उपवीत (जनेऊ / सूत्र / धागा) पहनाया जाता है। वह कैसा एवं किस परिमाण का होना चाहिए? इस सम्बन्ध में विचार करना अति आवश्यक है। श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक- इन तीनों परम्पराओं में उपवीत का स्वरूप इस प्रकार उपलब्ध होता है श्वेताम्बर - परम्परा में जिनोपवीत का स्वरूप जिनोपवीत का स्वरूप एवं परिमाण - आचारदिनकर में जिनोपवीत का स्वरूप निम्नलिखित बताया है- दोनों स्तनों के अन्तर के समरूप चौरासी धागों का एक सूत्र करें, फिर उसे तिगुणा करें। पुनः उस त्रिगुणसूत्र का त्रिगुणा करें, ऐसा एक तन्तु होता है। उसके साथ ऐसे ही दो तन्तु और जोड़े जाते हैं। इस प्रकार नवतंतु गर्भित त्रिसूत्र होते हैं, यह उपवीत (जनेऊ) कहलाता है। 24 यहाँ ज्ञातव्य है कि नवतंतु गर्भित त्रिसूत्र का एक अग्र होता है। सभी वर्गों में ऐसा अग्र धारण करने की अलग-अलग व्यवस्था है। - जिनोपवीत की संख्या- श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ब्राह्मण को नवतंतुगर्भित सूत्रमय तीन अग्र, क्षत्रिय को प्रथम के दो अग्र, वैश्य को प्रथम
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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