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कर्णवेध संस्कार विधि का तात्त्विक स्वरूप ...155 • इस संस्कार के अवसर पर मोदक आदि नैवेद्य बनाना एवं मंगलाचार आदि कृत्य अपने कुलाचार के अनुसार ही करे। • उसके बाद बालक को सुखासन में पूर्वाभिमुख बिठाकर उसका कर्णछेदन करे। उस समय गुरु वेद मंत्र पढ़े। कर्णछेदन मंत्र इस प्रकार है___“ऊँ अर्ह श्रुतेनांगोपांगौः कालिकैरूत्कालिकैः पूर्व-गतैश्चूलिकाभिः परिकर्मभिः सूत्रः पूर्वानुयोगैः छन्दोभिलक्षणै-निरूक्तैर्धर्मशास्त्रैर्विद्धकर्णो भूयात् अर्ह ॐाँ"
. उसके बाद बालक को वाहन में बिठाकर अथवा नर-नारी अपनी गोद में बिठाकर उपाश्रय में ले आये। • यहाँ पूर्वोक्त विधि पूर्वक मंडली पूजा करें। फिर बालक को यति गुरु के चरणों के आगे लेटा दें, तब यति गुरु विधि पूर्वक वासदान करे। . उसके बाद बालक को उसके घर ले जाए। गृहस्थ गुरु उसके कानों में आभूषण पहनाएं। यति गुरु को आहार, वस्त्र और पात्र का दान करें और गृहस्थ गुरु को वस्त्र, रूपए और स्वर्ण का दान दें।
दिगम्बर- इस परम्परा में कर्णवेध संस्कार की विधि पृथक् से नहीं दी गई है। चौलसंस्कार की विधि के साथ ही कर्णवेध की क्रिया सम्पन्न कर लेते हैं, अत: यह कहना असंभव है कि इस परम्परा में कर्णवेध कौन करता है? कर्णवेध की विशिष्ट क्रिया क्या है? कर्णवेध का मन्त्र कौनसा है? इत्यादि।
वैदिक- वैदिक धर्म के प्राचीन ग्रन्थों में कर्णवेध संस्कार की निम्न विधि प्राप्त होती है-तदनुसार प्राचीनकाल में किसी शुभ दिन मध्याह्न के पूर्व यह संस्कार किया जाता था। उसमें शिशु को पूर्वाभिमुख बिठाकर उसे कुछ मिठाईयाँ दी जाती थी। उसके बाद आप अपने कानों से भद्र वाणी सुनें-इस मन्त्र द्वारा बायाँ कान छेदा जाता था। तदनन्तर सामान्य क्रियाकलापों के साथ ब्राह्मण को भोजन करवाया जाता था।18
वर्तमान में इस संस्कार के दिन विष्णु, शिव, ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र, दिक्पाल, सरस्वती, बाह्मण तथा गौमाता का पूजन करते हैं। कुल गुरु को अलंकृत कर उन्हें एक आसन दिया जाता है। शिशु के कान लाल चूर्ण से रंगते हैं, उसे वैद्य के सामने लाकर फुसलाते हैं। उस समय वैद्य बहुत धीरे से एक ही बार में कान छेद देता है। फिर अन्त में ब्राह्मणों, ज्योतिषियों और वैद्य को दक्षिणा दी जाती है तथा सगे-सम्बन्धियों का सत्कार किया जाता है।19