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154...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन या आठवें मास में करने को कहा गया है।12 बृहस्पति के अनुसार यह जन्म के दसवें, बारहवें या सोलहवें दिन या सातवें या दसवें मास में करना चाहिए।13 गर्ग ने छठवां, सातवाँ, आठवाँ या बारहवाँ मास इस संस्कार के लिए उपयुक्त माना है। श्रीपति के अनुसार शिशु के दाँत निकलने के पूर्व और जब तक शिशु माता की गोद में खेलता हो, कर्णवेध-संस्कार सम्पन्न करना चाहिए।14 कात्यायनसूत्र इस संस्कार का उपयुक्त समय तीसरा या पाँचवां वर्ष बताता है15. और यह अभिमत जैन परम्परा से भी मेल खाता है। शारीरिक विकास एवं अल्प कष्टकारी होने की दृष्टि से अन्तिम मत अधिक उचित लगता है। चूड़ाकरण संस्कार के लिए भी यही काल विहित कहा गया है तथा आजकल बहुधा चूड़ाकरण और कर्णवेध साथ-साथ किए जाते हैं। कर्णवेध संस्कार हेतु निर्दिष्ट आवश्यक सामग्री
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इस संस्कार में पौष्टिक विधान, आठ मातृका पूजन, अपने-अपने कुलाचार के अनुसार नैवेद्य आदि अर्पण करने रूप उपचार तथा यति गुरु और गृहस्थ गुरु को देने योग्य दान आदि कृत्यों में उपयोगी सामग्री आवश्यक बतलाई है।16 दिगम्बर एवं वैदिक साहित्य में इस संस्कार में उपयोग आने वाली सामग्री का कोई उल्लेख नहीं है। कर्णवेध संस्कार विधि शास्त्रकारों के मत में
श्वेताम्बर- आचारदिनकर में कर्णवेध संस्कार की यह विधि कही गई है17 -
. श्वेताम्बर परम्परा में कर्णवेध संस्कार के लिए तीसरा, पाँचवां या सातवाँ वर्ष योग्य माना गया है। उन वर्षों में से जिस मास में शिशु का सूर्य बलवान् हो, उस माह के शुभ दिनों में गृहस्थ गुरु अमृत मंत्र द्वारा जल को अभिमंत्रित करे। उसके बाद सौभाग्यवती नारियाँ मंगलगीत गाती हुई अभिमंत्रित जल द्वारा शिशु एवं उसकी माता को स्नान कराएं। यह स्नान कुलाचार के अनुसार तीसरे, पाँचवें, नवे या ग्यारहवें दिन भी किया जाता है। • फिर गृहस्थ गुरु उसके घर पर पौष्टिक कर्म की विधि करे। साथ ही षष्ठी माता को छोड़कर पूर्वोक्त आठ माताओं की पूजा करे। • फिर अपने-अपने कुल की परम्परानुसार किसी अन्य ग्राम में, कुल देवता के स्थान पर, पर्वत पर, नदी के किनारे अथवा गृहांगन में कर्णवेध संस्कार करे।