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कर्णवेध संस्कार विधि का तात्त्विक स्वरूप
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कर्णवेध संस्कार के लिए मुहूर्त्त का विचार
श्वेताम्बर परम्परा कर्णवेध संस्कार के लिए शुभ दिन को विशेष महत्त्व देती है। यह संस्कार नियतकालिक अवधि के पूर्ण होने पर भी शुभ मुहूर्त आदि के योग में किया जाना चाहिए - ऐसा श्वेताम्बर आचार्यों का स्पष्ट निर्देश है। आचारदिनकर में इस संस्कार के लिए निम्न नक्षत्र आदि शुभ माने गए हैं।
नक्षत्रों में- उत्तरात्रय, हस्त, रोहिणी, रेवती, श्रवण, पुनर्वसु, मृगशिरा और पुष्य-ये उत्तम माने गए हैं। इनमें भी रेवती, श्रवण, हस्त, अश्विनी, चित्रा, पुष्य, धनिष्ठा, पुनर्वसु एवं अनुराधा - ये नक्षत्र चन्द्र सहित हों तो ही कर्णवेध के लिए शुभ होते हैं। इस क्रम में यह भी निर्दिष्ट किया है कि उस दिन शिशु की लग्न कुंडली का तीसरा या ग्यारहवाँ स्थान शुभ ग्रहों से युक्त होना चाहिए । राशि लग्न में क्रूर ग्रह नहीं होने चाहिए तथा बृहस्पति या लग्नाधिप लग्न में होना चाहिए। वारों में- मंगल, शुक्र, सोम एवं गुरु। इसी के साथ शुभ तिथि में और शुभ योग में कर्णवेध संस्कार करना चाहिए।
इस संस्कार का महत्त्व बताते हुए यह भी वर्णित किया है कि गर्भाधान, जातकर्म और मृत्यु - इन संस्कारों की अवधि अनिश्चित होने के कारण इन पर आधारित संस्कारों में वर्ष और मास की शुद्धि देखना जरूरी नहीं है, जबकि कर्णवेध के लिए विवाह संस्कार की तरह वर्ष, मास, नक्षत्र और दिन की शुद्धि अवश्य देखनी चाहिए ।
दिगम्बर परम्परा में इस संस्कार का पृथक् अस्तित्व न होने के कारण इस कार्य हेतु शुभदिन का सूचन भी प्राप्त नहीं होता है, किन्तु चौलकर्म संस्कार के लिए जो दिन शुभ माने गए हैं वही दिन कर्णवेध के लिए भी शुभ जानने चाहिए।
वैदिक परम्परा में शुभ दिन आदि की कोई चर्चा नहीं है। कर्णवेध संस्कार हेतु समुचित काल निर्णय
आचारदिनकर के अनुसार यह संस्कार बालक के जन्म से तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष में किया जाना चाहिए। 10 दिगम्बर परम्परा के मतानुसार यह संस्कार बालक के पाँच वर्ष पूर्ण होने पर किया जाना चाहिए। कारणवशात् दोतीन वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर भी यह क्रिया की जा सकती है। 11 वैदिक ग्रन्थों में इस विषय को लेकर विभिन्न मत हैं। बौधायनगृह्यसूत्र में कर्णवेध सातवें