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152...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन की घटना को सूक्ष्मता पूर्वक देखना है। एक बिछुड़ने के दुःख से रो रहा है तो दूसरा उस मृत व्यक्ति से पूर्व में प्राप्त किए सुख पर कृतज्ञता दिखाने के निमित्त रो रहा है तो एक रिवाज समझकर रो रहा है, एक दूसरे की आँखों में आँसू देखकर अपने आँसू थाम नहीं पा रहा है। कर्ण छेद ऐसी ही शक्ति को जागृत करने का प्रथम पाठ है। योग साधना की दृष्टि से कर्ण वेध के स्थान को अप्रमाद का केन्द्र माना गया है, जहाँ छेद किया जाता है। उस स्थान विशेष पर दबाव पड़ने से व्यक्ति की प्रमाद दशा दूर होती है। इस प्रकार इस संस्कार का सम्बन्ध मन की सजगता से भी रहा हुआ है। गाँवों की पाठशाला में आज भी यह दृश्य प्रत्यक्षत: देखने को मिलता है कि जब कोई विद्यार्थी भूल करता है, अध्यापक की आज्ञा को स्वीकार नहीं करता है, तब अध्यापक छात्र को दोनों कान पकड़कर ऊठक-बैठक करवाते हैं। लौकिक जगत में व्यक्ति अपनी भूल को कबूल करने के लिए तथा पुन: उस भूल को न दोहराने की भावाभिव्यक्ति के लिए सहसा अपने कर्णपटल को पकड़ता है।
वर्तमानयुग की एक्यूपंचर चिकित्सा पद्धति भी इस संस्कार के साथ मेल खाती है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कर्णवेध संस्कार की आवश्यकता
और उपादेयता अनेक दृष्टियों से सिद्ध होती है। कर्णवेध संस्कार करने का मुख्य अधिकारी
श्वेताम्बर परम्परा में गर्भाधान से लेकर विवाह पर्यन्त सभी संस्कारों को सम्पन्न करवाने का अधिकार जैन ब्राह्मण को दिया गया है। दिगम्बर परम्परानुसार इस संस्कार को कौन करवा सकता है? इसका उल्लेख स्पष्ट नहीं है, किन्तु संकेतों के आधार पर द्विज को इसका अधिकारी माना जा सकता है। वैदिक मत में यह विषय विवादास्पद है। कात्यायनसूत्र के अनुसार यह संस्कार पिता द्वारा किया जाना चाहिए किन्तु कानों का छेदन किससे करवाना चाहिए, इस सम्बन्ध में सुश्रुत ने कहा है- भिषक् को बाँयें हाथ से कर्णवेध करना चाहिए। मध्यकालीन लेखकों ने यह अधिकार व्यावसायिक-सौचिक (सुई बनाने वाले या उससे काम करने वाले) को दिया है किन्तु वर्तमान में स्वर्णकार ही कर्णछेदन की क्रिया करते हैं।' __ वर्तमान की प्रचलित परम्पराओं में कर्णवेध के लिए अधिकांशतः स्वर्णकार को ही बुलाया जाता है।