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________________ कर्णवेध संस्कार विधि का तात्त्विक स्वरूप ...151 तथ्य यह माननीय है कि संसार में जितनी भी धातुएँ उत्खनन आदि के द्वारा प्राप्त होती हैं, उन सभी में काम्य धातुएँ गहने के लिए असाधारण गुणों से युक्त होती हैं, जो मात्र सौन्दर्य को ही प्रभावित नहीं करती, अपितु शरीर के अन्दर विद्यमान रोगाणुओं को भी बलात् नियन्त्रित करती हैं। यही कारण है कि प्रायः सभी धातुएँ अग्नि के संस्पर्श से जल जाती हैं या विकृति को प्राप्त करती हैं किन्तु स्वर्ण एवं चाँदी ऐसी धातुएँ हैं, जिन्हें अग्नि में तपाए जाने पर ही उनमें निखार आता है। __ ज्योतिष शास्त्रियों द्वारा नाना प्रकार के अमंगल ग्रहों की शान्ति के निमित्त अनेक प्रकार के रत्न धारण किए जाने की सलाह दी जाती हैं। उनके धारण करने के स्थान भी शास्त्रों में नियत किए गए हैं, जहाँ उस रत्न के संस्पर्श होने से उन ग्रहों की शान्ति होती है। इस दृष्टि से कर्णवेध संस्कार द्वारा जिस बच्चे के कान में छेद करवाए जाते हैं और उनमें उत्तमोत्तम धातुओं के साथ रत्न धारण करवाए जाते हैं, वे स्वास्थ्य, ग्रह शान्ति एवं सौन्दर्य वर्धन होते हैं। दार्शनिक दृष्टि से भी इस संस्कार का महत्त्व है। इस सम्बन्ध में डॉ. बोधकुमार झा ने लिखा है कि यह संसार एक शून्य है, शून्य के अलावा इसमें कुछ भी नहीं है। प्रकृति द्वारा सर्जित शरीर में अनेकों रिक्तियाँ बनाई गई है, किन्तु व्यक्ति द्वारा यह रिक्त स्थान कृत्रिम रीति से भर दिए जाते है, जिसका संकेत संसार की अटल सत्यता की ओर रहता है। व्यक्ति शून्य में कुछ भी करने को स्वतंत्र है क्योंकि यह शून्य शाश्वत नहीं है अर्थात शून्य को पुरुषार्थ द्वारा बांटा जा सकता है। जिस प्रकार आग के शोलों में जल के कण ढूंढे जा सकते हैं, पाषाण में रस के फव्वारे फूट सकते हैं, उसी प्रकार कर्णवध संस्कार द्वारा असंभव कार्यों को संभव किया जा सकता है। यह भारतीय संस्कृति की अनुपम विशेषताओं में से एक है। इस संस्कार का एक प्रयोजन यह भी माना जा सकता है कि व्यक्ति जो कुछ सुन रहा हो, उसे उचित अर्थ की क्षमता पूर्वक सुनने वाला हो अर्थात एक सी घटना का अनेक प्रकार से अर्थ निकालने वाला हो, उस घटना को समस्त अभिप्रायों से जानने वाला हो, छेद-छेद कर विवेक पूर्वक समझने वाला हो जैसे-किसी भी मृत्यु पर दस-बारह व्यक्ति रो रहे हों तो उस स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति का रूदन सुनकर हर व्यक्ति के रोने का सही अर्थ लगाना, उस रूदन
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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