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150...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन दिगम्बर एवं वैदिक इन तीनों परम्पराओं में इस संस्कार को स्वीकार किया गया है। श्वेताम्बर एवं वैदिक- इन दो परम्पराओं में कर्णवेध संस्कार को स्वतन्त्र संस्कार के रूप में मान्यता प्राप्त है, किन्तु दिगम्बर-मत में इसको स्वतन्त्र संस्कार न मानकर चौलकर्म संस्कार में इसका अन्तर्भाव कर लिया गया है। कर्णवेध संस्कार की अर्थ यात्रा
इसका सीधा सा अर्थ है कान के एक भाग को छिदवाना या छेद करवाना। इस क्रिया को धार्मिक विधि-विधान पूर्वक सम्पन्न करना कर्णवेध संस्कार कहलाता है। __ कर्णछेदन की प्रक्रिया नियत सुई द्वारा ही की जाती है। यूं तो स्वर्णसूचिका उत्तम मानी गई है, किन्तु अपने सामर्थ्य के अनुसार चाँदी अथवा तांबे की सूई का भी व्यवहार किया जा सकता है। स्मृतिमहार्णव में तांबे की सूचिका का निर्देश है। शिशु की जाति के अनुसार इनमें भेद हो सकता है जैसे-राजपुत्र के लिए स्वर्णमयी सूची, ब्राह्मण एवं वैश्य के लिए रजत निर्मित सूची और शुद्र के लिए लौह सूची का उपयोग करना चाहिए। इस प्रकार निर्धारित सूचिका द्वारा विधिपूर्वक कर्णछेदन करना कर्णवेध संस्कार है। कर्णवेध संस्कार की व्यावहारिक जगत में आवश्यकता ___ जब हम कर्णवेध संस्कार की आवश्यकता, उपादेयता अथवा प्रयोजन आदि को लेकर चिन्तन करते हैं, तो कई दृष्टियों से इसकी मूल्यवत्ता सिद्ध होती है।
यह संस्कार जितना व्यावहारिक है, उतना ही वैज्ञानिक भी। व्यावहारिक दृष्टि से कर्णवेध संस्कार का महत्त्व अनुशंसनीय है। यह संस्कार सामाजिक दृष्टि से व्यक्ति के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करता है। शरीर के प्रत्येक अंगों में कर्ण की अपनी एक अलग पहचान है। कर्ण दो होते हैं और अपने बीच में मुखमण्डल को सौन्दर्य से मण्डित करते हैं। आदमी स्वभाव से ही सौन्दर्यप्रेमी है। संस्कार पूर्वक इस अंग में विशिष्ट प्रकार का आभूषण पहनना सौंदर्य में अभिवृद्धि करना है।
चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से भी कर्णवेध संस्कार का अपना महत्त्व है। इसके द्वारा हाइड्रोसील जैसे रोग का निवारण संभव है। यदि कोई विशेषज्ञ कान की नस को पहचानकर ठीक से छिद्र कर दे, तो उक्त रोग नहीं होता। दूसरा