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________________ अध्याय 11 कर्णवेध संस्कार विधि का तात्त्विक स्वरूप मानव शरीर का एक मुख्य अंग है कान। इसकी गणना पाँच संवेदनशील इन्द्रियों के अन्तर्गत होती है । विभिन्न दृष्टियों से कान के विविध उपयोग है एवं शरीर शास्त्रियों की दृष्टि में यह एक मुख्य नियंत्रण केन्द्र है। इसी कारण भारतीय ऋषि- महर्षियों ने कर्णछेदन संस्कार का निरूपण किया होगा। यह संस्कार शिशु का कर्ण छेदन करवाए जाने से सम्बन्धित है। इस संस्कार द्वारा परम्परामूलक विधि-विधान के माध्यम से बालक का कर्णछेदन (कान छिदवाना) किया जाता है । कर्णछेदन की प्रक्रिया स्वस्थ शरीर एवं स्वस्थ मन से सम्बन्ध रखती है। यह संस्कार प्राचीन चिकित्सा पद्धति पर आधारित है । इतिहास की दृष्टि से यह संस्कार अति प्राचीन है। संभवत: प्रारम्भिक काल में अलंकरण के लिए इसका प्रचलन हुआ होगा, किन्तु अब स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसकी उपयोगिता समझ आने लगी है। धार्मिक संस्कार के रूप में प्रारंभ हुए इस संस्कार को वैज्ञानिक मान्यता भी प्राप्त हो चुकी है। आभूषण पहनने के लिए विभिन्न अंगों के छेदन की प्रथा न केवल जनजातियों में प्रचलित रही है, अपितु सभ्य समाज में भी शरीर - अलंकरण की प्रथा को मान्यता मिल चुकी है। चिकित्साशास्त्र के अभिमतानुसार रोग आदि से रक्षा करने के लिए तथा अण्डकोशवृद्धि एवं आन्त्रवृद्धि के निरोध के लिए कर्णवेध अवश्य करना चाहिए । इस विधान के द्वारा उक्त रोगों का यथासंभव निरोध किया जा सकता है । ' यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कर्णछेदन की प्रथा तो अत्यन्त पुरानी है, किन्तु इसे धार्मिक संस्कार के रूप में मान्यता बहुत बाद में प्राप्त हुई। यह बात गृह्यसूत्रों का अवलोकन करने से अवगत होती है, क्योंकि किसी भी गृह्यसूत्र में इस संस्कार का उल्लेख नहीं हुआ है। वर्तमान परम्परा में इस संस्कार का जो महत्त्व देखा जाता है, वह इसके स्वास्थ्यमूलक दृष्टिकोण से है। श्वेताम्बर, W
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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