________________
अन्नप्राशन संस्कार विधि का प्रायोगिक स्वरूप ...143
होता है - यह तो एक उदाहरण मात्र है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक अन्न प्रत्येक समय में शारीरिक क्रियाओं को प्रभावित करता है अतः अन्नप्राशन के समय मुहूर्त्त का विचार करना वैद्यक शास्त्र के अनुकूल बात है ।
अन्नप्राशन के पूर्व जैन ब्राह्मण या माता-पिता को पवित्र रहना जरूरी क्यों? अन्नप्राशन संस्कार सम्पन्न करने से पूर्व ब्राह्मण को या माता-पिता को अत्यन्त पवित्र रहने की जो शर्त ग्रन्थों में निरूपित है, उसको हम आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से परिवेश में अवस्थित हानिकारक जीवाणु से बचने वाले उपायों के रूप में देख सकते हैं। माता को शुचि सम्पन्न होने के लिए इसलिए कहा जाता है कि वह अन्न को पकाकर खाने लायक रूप प्रदान करती है। वैदिक मत में पिता अपने हाथों से पुत्र को भोजन कराता है अतः उसका भी निर्मल होना आवश्यक है।
अन्नप्राशन के समय दधि, मधु, घृत एवं खीर का महत्त्व- वैदिक परम्परा में अन्नप्राशन के अवसर पर खिलाए जाने वाले धान्यादि के साथ दधि आदि वस्तुओं का सम्मिश्रण किया जाता है। यह शारीरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सामान्यतया इन वस्तुओं के प्रभाव से भोजन के बाद उत्पन्न होने वाली नाना प्रकार की विकृतियाँ दूर होती हैं। आयुर्वेदशास्त्र के अनुसार दधि, मधु एवं घृत दशाधिक बीमारियों को दूर करने की सामर्थ्य अपने में रखते हैं अर्थात इन वस्तुओं के सेवन द्वारा शरीर स्वस्थ रहता है।
जहाँ तक खीर का प्रश्न है, वह सुपाच्य एवं सात्त्विक गुण प्रधान होने के कारण ही उसे इस संस्कार में प्रमुखता दी गई है । प्रस्तुत संस्कार के अवसर पर शिशु के आहार में इन दोनों तथ्यों का पूरा ध्यान रखना चाहिए। उसे कोई ऐसी चीज न दी जाए, जो पाचन में कठिनाई उत्पन्न करती हो तथा इतनी अधिक मात्रा में भी न हो, जो आमाशय और आँतो पर भार बनकर उसके जीवन का संकट बन जाए। जो अभिभावक बच्चों के आहार की मात्रा का एवं सुपाच्यता आदि का ध्यान नहीं रखते हैं, वे उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ने के अपराधी होते हैं। आज की स्थिति यही है। लोग बच्चे तो पैदा कर लेते हैं, पर उनके आहार के बारे में समुचित ज्ञान नहीं रखते, अनावश्यक मात्रा में अनुपयुक्त खाद्य वस्तुएँ खिलाते रहते हैं । फलस्वरूप बालक रोगी होता है और असमय ही काल-कवलित हो जाता है। हमारे देश में इस प्रकार बाल मृत्यु