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144... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
अभिभावकों की इस अज्ञानता के कारण ही अधिक हो रही है। संसार में बाल मृत्यु की औसत सबसे अधिक भारत में ही है। इसका प्रधान कारण छोटे बालकों के आहार सम्बन्धी अज्ञान को ही समझना चाहिए अतः इस संस्कार के प्रसंग पर तथा उसके बाद भी सात-आठ वर्ष तक बच्चों के आहार की मात्रा का पूरा ध्यान रखना चाहिए, वही सच्चा संस्कार है। 22
जिनप्रतिमा, कुलदेवता आदि के समक्ष अन्न आदि का अर्पण क्यों? खाने से पूर्व देना या अर्पण करना भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है। यह हमारी प्राचीन और लौकिक संस्कृति रही है। भोजन थाली में आते ही गाय, चींटी आदि का भाग उसमें से अवश्य निकालते हैं। साथ ही भोजन ईश्वर को समर्पित कर या वैदिक मत से अग्नि में आहुति देने के बाद खाते हैं। होली का पर्व तो इसी प्रयोजन के लिए ही है। नई फसल में से एक दाना भी मुख में डालने से पूर्व पहले उसकी आहुतियाँ होलिका - यज्ञ में देते हैं, तब उसे खाने का अधिकार मिलता है। किसान फसल को साफ कर जब खलिहान में अन्न राशि तैयार कर लेता है, तो सबसे पहले उसमें से एक टोकरी अन्न धर्म कार्य के लिए निकालता है, तब वह अन्न राशि घर ले जाता है।
भारतीय संस्कृति यह रही है कि किसी भी द्रव्य का उपयोग करने से पूर्व धर्म के निमित्त कुछ अवश्य दान किया जाए । दान करने से जीवन में उदारता, निःस्वार्थता और परमार्थता आदि गुणों का विकास होता है। पूजनीय परमात्मा के प्रति अहोभाव के गुण प्रकट होते हैं। समाज के बीच भी वह धार्मिक, दानवीर, परोपकारी की दृष्टि से देखा जाता है। तात्पर्य यह है कि परमात्मा आदि को कुछ भी अर्पित करने की भावना से व्यक्ति के जीवन में लौकिक या लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से परिवर्तन आता है। अर्पित करना अपने-आप में बहुत बड़ा गुण है। यह एक धार्मिक कर्तव्य भी है। जो अपनी कमाई आप ही खाता है, पर्व विशेष या अनुष्ठान विशेष के अवसर पर जिनालय में कुछ भी नहीं चढ़ाता है, वह कानून या प्रथा- परम्परा के अनुसार भले ही सभ्य हो, किन्तु नैतिकता एवं धार्मिकता के अनुसार चोर है।
हिन्दू परम्परा में दान का महत्त्व विशेष है। वहाँ हर छोटी-बड़ी परम्परा में दान को अनिवार्य शर्त के रूप में जोड़ दिया गया है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हर संस्कार में, हर धर्मानुष्ठान में, देव-दर्शन में अर्पण या दान के बिना नहीं