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________________ 142... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन में है वह अन्य प्रकार के आहार में नहीं है। शारीरिक - पुष्टता, निरोगता, स्वस्थता, बलिष्ठता आदि के सभी गुण अपेक्षाकृत अन्न आहार में विशेष प्रकार रहे हुए हैं। इन सभी गुणों की अपेक्षा से मनुष्य के लिए अन्न आहार ही उपयोगी प्रतीत होता है। इस आहार की अनिवार्यता को प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आसानी से सिद्ध किया जा सकता है, एतदर्थ अन्नाहार संस्कार का प्रावधान किया गया है। इस संस्कार द्वारा बच्चे को अन्न का महत्त्व समझाया जाता है। छः माह के बाद ही अन्नप्राशन संस्कार का निर्देश क्यों? सामान्यतया सभी परम्पराओं में इस संस्कार का काल शिशु जन्म से छः माह बाद माना गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि उस अवधि के पूर्वकाल तक बालक का शरीर अत्यन्त कोमल एवं पाचनतन्त्र निष्क्रिय रहता है। आहार को चबाने, पचाने एवं रक्त-मांस आदि रूप में परिणत करने की क्षमता अल्प विकसित होती है, जबकि छ: माह के बाद बच्चे का पाचनतंत्र कुछ मजबूत होकर अधिक क्रियाशील होने लगता है, जिससे सुपाच्य अन्न को पचा लेने की क्षमता आ जाती है, अतः उपयुक्त अवस्था को जानकर ही यह संस्कार छठवें माह आदि में सम्पादित किया जाता है। 21 तत् क्रिया योग्य बच्चे की कमजोर एवं पूर्व में अननुभूत की सी स्थिति में अन्न के साथ पाचन तंत्रिका का संघर्ष किया जाना कुछ समय तक कठिन होता है, इसलिए भी उपयुक्त समय की प्रतीक्षा आवश्यक प्रतीत होती है। अन्नप्राशन संस्कार का शुभ मुहूर्त से क्या सम्बन्ध ? यहाँ एक चिन्तनीय पक्ष है कि अन्नप्राशन के लिए शुभ मुहूर्त का होना क्यों महत्त्वपूर्ण है ? अन्नप्राशन से शुभ मुहूर्त्त का क्या सम्बन्ध हो सकता है? यह बात ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्धित है। चन्द्र की शक्ति एवं तारों का प्रभाव हमेशा समान नहीं होता प्रत्युत उसमें बदलाव आता रहता है, इस बात को आधुनिक विज्ञान भी सहर्ष स्वीकारता है। उपजने वाला अन्न निश्चित रूप से ग्रहों, उपग्रहों से प्रभावित होता है और उसकी प्रतिक्रिया भी अलग-अलग ढंग की अलग-अलग समय में हुआ करती है। भात को रात में खाया जाना स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुचित है, क्योंकि कफ की वृद्धि करता है, किन्तु उदर व्यथा से पीड़ित व्यक्ति द्वारा यदि उसे दिन में खाया जाता है तो वह दोषावह न होकर गुणावह
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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