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________________ अन्नप्राशन संस्कार विधि का प्रायोगिक स्वरूप ...139 गृह्यसूत्रों के अनुसार यह संस्कार शिशु के जन्म होने के पश्चात छठवें मास में किया जाना चाहिए। प्राचीन स्मृतियों ने भी इसके लिए छठवां महीना उपयुक्त माना है।10 कुछ विद्वानों के मतानुसार यह बारहवें मास में अथवा एक वर्ष सम्पूर्ण होने पर भी किया जा सकता है।11 लौगाक्षि के नियमानुसार पाचन-शक्ति के विकसित हो जाने पर अथवा दाँतों के निकलने पर अन्नप्राशन संस्कार करना चाहिए।12 इस नियम से सूचित होता है कि दाँत ठोस अन्न ग्रहण करने की क्षमता के विकसित होने के प्रत्यक्ष चिह्न हैं। दुर्बल शिशु के लिए यह अवधि बढ़ाई भी जा सकती हैं, किन्तु अन्तिम सीमा एक वर्ष तक की निर्धारित की जानी चाहिए अन्यथा माता के स्वास्थ्य और शिशु की पाचनशक्ति के विकास के लिए हानिकारक स्थिति पैदा कर सकते हैं अत: एक वर्ष की अवधि तक यह संस्कार कर ही दिया जाना चाहिए। इस अवधि के अन्तर्गत भी बालकों के लिए सम तथा बालिकाओं के लिए विषम मास विहित माने गए हैं। लिंग पर आधारित यह भेद इस भाव का सूचक है कि संस्कारों में विभिन्न लिंगों के लिए किसी न किसी प्रकार का अन्तर अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार वैदिक मत में छठवें मास से लेकर एक वर्ष तक की अवधि इस संस्कार के लिए योग्य कही गई है। अन्नप्राशन संस्कार सम्बन्धी आवश्यक सामग्री श्वेताम्बर परम्परा के आचारदिनकर में इस संस्कार के लिए अग्रलिखित सामग्री अपेक्षित मानी गई है 13 (1) सभी प्रकार के धान्य (2) सभी प्रकार के फल (3) सभी विकृतियाँ (4) स्वर्ण, रजत, ताम्र और कांसे एक-एक पात्र इत्यादि वस्तुएँ इस संस्कार के लिए एकत्रित करनी चाहिए। दिगम्बर एवं वैदिक मत में इस संस्कार के लिए किसी भी सामग्री का उल्लेख लगभग नहीं है। भारतीय साहित्य में अन्नप्राशन संस्कार विधि श्वेताम्बर- श्वेताम्बर परम्परा में अन्नप्राशन संस्कार की विधि निम्नलिखित रूप में प्रतिपादित की गई है14 . जिस शुभयोग आदि दिन में यह संस्कार सम्पन्न करना हो, उस दिन पूर्वोक्त लक्षणवान् गृहस्थ गुरु शिशु के घर आए और उस देश में उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के धान्य को एकत्रित करे। इसी के साथ उस देश में उत्पन्न होने वाले और उस शहर में उपलब्ध हो सकने वाले फलों एवं छ: विकृतियों (दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और तली हुई वस्तुएँ)
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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