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अध्याय -8
शुचिकर्म संस्कार विधि का ऐतिहासिक स्वरूप
भारतीय परम्परा में जन्म एवं मृत्यु के पश्चात शोक निवारण या शुचि निवारण की विशेष परम्परा रही है। हर्ष या शोक के अतिरेक से मुक्ति पाने हेतु यह श्रेष्ठ उपाय है। जन्म के पश्चात अशुचि निवारण हेतु शुचि संस्कार किया जाता है। यह संस्कार दैहिक शुद्धि, स्थान शुद्धि एवं वातावरण शुद्धि के निमित्त किए जाने वाले विधि-विधानों से सम्बन्धित है। इस संस्कार द्वारा प्रसूता नारी, प्रसूत बालक एवं प्रसव स्थल- इन तीनों की शुद्धि की जाती है। यह संस्कार पवित्रता-स्वच्छता की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखता है। श्वेताम्बर परम्परा में इस संस्कार को शुचिकर्म संस्कार के नाम से अभिहित किया है। दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा में इस नाम का स्वतन्त्र रूप से कोई संस्कार नहीं है। इन दोनों परम्पराओं में इस संस्कार सम्बन्धी क्रियाकलापों को जातकर्म संस्कार के साथ समाहित कर दिया गया है।
यदि हम सामान्य दृष्टि से विचार करें तो यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि भारतीय संस्कृति की सभी परम्पराओं में इस संस्कार से सम्बन्धित क्रियाकलाप किये जाते हैं। सभी परम्पराएँ किसी न किसी रूप में प्रसव क्रिया से उत्पन्न होने वाली अशुद्धि को अवश्यमेव दूर करती हैं। इस सम्बन्ध में इतना विशेष है कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रसव विषयक अशुद्धि को दूर करने की एक सुव्यवस्थित एवं सुनिश्चित विधि प्राप्त होती है। प्रत्येक जैन व्यक्ति इस संस्कार कर्म को विधि पूर्वक एवं क्रम पूर्वक सम्पादित करने के बाद ही धर्म स्थान में आने का
और धर्माराधना करने का अधिकारी बन सकता है। श्वेताम्बर परम्परा की यह संस्कार विधि धार्मिक दृष्टि से भी कम मूल्य नहीं रखती है।
दिगम्बर एवं वैदिक धारा में इस संस्कार की स्वतंत्र विधि का अभाव है। वहाँ भी अशुचि दूर करने सम्बन्धी कुछ विधि-विधान तो निरूपित हुए हैं किन्तु उन्हें जातकर्म में ही समाहित कर दिया गया है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में षष्ठी