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________________ शुचिकर्म संस्कार विधि का ऐतिहासिक स्वरूप ...113 संस्कार की तरह शुचिकर्म संस्कार का भी स्वतन्त्र एवं मौलिक स्थान है। यही इस संस्कार की अद्वितीय विशिष्टता है। शुचिकर्म संस्कार का अर्थपरक विश्लेषण शुचि शब्द अनेकार्थवाची है। शुचि शब्द के विभिन्न अर्थ होते हैं-विमल, विशुद्ध, स्वच्छ, सद्गुणी, उज्ज्वल, पवित्रात्मा, पुण्यात्मा, निष्पाप, निष्कलंक, शुद्धता, यथार्थता, सच्चा, निर्मल किया हुआ, पुनीत किया हुआ आदि।' प्रस्तुत अध्याय में शुचि शब्द से तात्पर्य-स्वच्छता, पवित्रता, विशुद्धता, निर्मलता आदि अर्थों से है अर्थात प्रसूति सम्बन्धी अशुद्धि का निवारण करना, प्रसूता नारी की दैहिक शुद्धि करना, प्रसूति स्थल को स्वच्छ करना, प्रसवमय वातावरण को पवित्र करना शुचिकर्म संस्कार है। यह संस्कार विधि-विधान पूर्वक किया जाता है। शुचिकर्म संस्कार की लौकिक आवश्यकता जब हम यह विचार करते हैं कि शुचिकर्म संस्कार का मुख्य प्रयोजन क्या हो सकता है? इस संस्कार की आवश्यकता क्यों महसूस की गई? इस संस्कार का उद्देश्य क्या रहा होगा? तो हमारे सामने अनेक तथ्य प्रस्तुत होते हैं। सर्वप्रथम तो प्रसव अशचि दूर करना गृहस्थ धर्म का एक आवश्यक अंग है। जैन एवं जैनेतर सभी परम्पराओं में अशुचि निवारण का उपक्रम अपने-अपने कुलाचार एवं अपनी-अपनी परम्परा के अनुरूप प्राच्य काल से किया जा रहा है अत: इस संस्कार की आवश्यकता निर्विवाद सिद्ध है। यह संस्कार बाह्य शुद्धि पर आधारित है। ___ गहराई से चिंतन करें तो जैन दर्शन की द्रव्य शुद्धि एवं भाव शुद्धि की अवधारणा भी पूर्ण रूप से लागू होती है। बाह्य शुद्धि (द्रव्य शुद्धि) के आधार पर ही आभ्यन्तर शुद्धि(भावशुद्धि) अवलम्बित है अर्थात इस संस्कार कर्म द्वारा बाह्य शुद्धि करने वाला साधक ही आभ्यन्तर शुद्धि की ओर अग्रसर हो सकता है। इस दृष्टि से यह संस्कार धार्मिक जीवन का भी एक अंग माना जा सकता है। जैन परम्परा में इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य भी यही रहा है। इस संस्कार की आवश्यकता वैयक्तिक, पारिवारिक, व्यावहारिक एवं धार्मिक दृष्टि से भी प्रत्यक्षत: सिद्ध होती है।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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