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सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार विधि ...85 था तथा उसे घर के किसी भी कोने में ले जाया जा सकता था। जब वह एकदो महीने का हो जाता, तब उसके विभिन्न अंगों की गतिशीलता के लिए गृहांगन तक चलना-फिरना ही पर्याप्त न था? अपेक्षाकृत अधिक व्यापक क्षेत्र की आवश्यकता महसूस होने लगी और यह उपयुक्त समझा जाने लगा कि शिशु को बाहरी संसार से परिचित कराया जाए, किन्तु एकाएक बाहरी संकटों का उपद्रव न हो जाए, उसके लिए इष्ट देवताओं का पूजन करना, उनकी प्रार्थनाएँ करना तथा उनकी सहायता प्राप्त करना भी आवश्यक प्रतीत होने लगा। एतदर्थ देवताओं के अर्चन पूर्वक इस संस्कार का उद्भव हुआ और परवर्तीकाल तक आते-आते इसमें काफी कुछ परिवर्तन भी हुए। सार रूप में कहें तो इस संस्कार का उद्भव शिशु को बाहरी दुनिया से परिचित कराने एवं शिशु की गतिविधियों का विस्तार करने के दृष्टिकोण को लेकर हुआ है।
दूसरा तथ्य यह भी माना जा सकता है कि शिशु-जीवन का प्रत्येक चरण महत्त्वपूर्ण होता है। वह समय एवं वातावरण के अनुरूप अच्छे-बुरे कई प्रकार के परिवर्तन उपस्थित करता है तथा माता-पिता और परिवार के लिए हर्ष का अवसर प्रदान करता है। इन्हीं की अभिव्यक्ति के लिए इस संस्कार का उद्भव हुआ-ऐसा कहना भी अनुचित नहीं है। सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार करने का अधिकारी
श्वेताम्बर परम्परा में इस संस्कार को सम्पन्न करवाने का अधिकारी जैनब्राह्यण या क्षुल्लक को माना गया है। दिगम्बर-परम्परा में वह द्विज इस संस्कार का अधिकारी कहा गया है जो सफेद वस्त्र पहने हुए हो, पवित्र हो और यज्ञोपवीत धारण किए हुए हो। ___ वैदिक परम्परा में इस संस्कार को सम्पन्न करवाने के सम्बन्ध में कईं मतमतान्तर हैं। गृह्यसूत्रों के अनुसार इस संस्कार के अधिकारी माता-पिता माने गए हैं। मुहूर्तसंग्रह के मतानुसार इस संस्कार को सम्पन्न करने के लिए मामा को बुलाया जाता था। इसका कारण अपनी बहन के शिशु के लिए उसके हृदय के स्नेहपूर्ण भाव ही प्रतीत होते हैं। जब संस्कारों को गृह्ययज्ञ माना जाता था, उस समय केवल पिता ही इस संस्कार का संस्कर्ता था, किन्तु जब देश-कालगत स्थितियों में परिवर्तन आया, तब इसका अधिकार पति-मामा-पिता तक ही सीमित