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________________ 84... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन रात, वर्ष-महीना, भूत-भविष्य, सुबह- शाम, प्रकाश - अंधकार आदि प्रमुख क्रियाएँ इनके आधार पर ही की जाती हैं। इनके अभाव में समय, घंटा, काल, उम्र, अवधि आदि की परिकल्पना संभव नहीं है। ज्योतिषशास्त्र में भी इनका प्रमुख स्थान है, अत: इस धरती पर आए नवजात शिशु को शक्तिशाली तत्त्वों से सर्वप्रथम परिचित करवाना ही इस संस्कार का प्रमुख उद्देश्य रहा है। यूँ तो दुनिया के कईं शक्तिशाली तत्त्व कहे गए हैं, किन्तु सूर्य एवं चन्द्र सृष्टि के अभिन्न अंग के रूप में हैं। इन दोनों तत्त्वों की कितनी आवश्यकता है, यह भी सर्वविदित है। सामान्यतया प्रस्तुत संस्कार सम्पन्न करने के अनेकों प्रयोजन और उद्देश्य हैं। सर्वप्रथम शिशु को बाहरी संसार से अवगत करवाने के लिए सूर्य एवं चन्द्र का दर्शन कराया जाता है। अन्य हेतु यह है कि बच्चे का जीवन 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के आदर्श से मण्डित हो । बालक में सूर्य जैसी तेजस्विता एवं अनवरत गतिमत्ता की शक्ति का शुभागमन हो तथा चन्द्र जैसी शीतलता, सौम्यता एवं मधुरता का भाव प्रकट हो इन शुभ भावों से भी यह विधान किया जाता है। यह बात अनुभवसिद्ध है कि बालक के शारीरिक उत्थान में सूर्य और चन्द्र अनिवार्य अंग हैं। हम देखते हैं कि सूर्य - प्रकाश के अभाव में पौधे का स्वाभाविक रूप से बढ़ना, उसमें पत्ते, फूल एवं फल का लगना असंभव है। सूर्य की ऊर्जा किसी भी सजीव पदार्थ के लिए बहुत ही आवश्यक होती है, यहाँ तक कि वह प्राण के स्रोत के रूप में काम करती है । बच्चा भी एक पौधे के समान ही होता है, जिसे अनेक प्रकार के विटामिन, ऊर्जा तथा प्राकृतिक तत्त्वों की परमावश्यकता होती है। इन सभी की अजस्र धाराएँ सूर्य से प्रसृत होती हैं अतः वैज्ञानिक दृष्टि से भी बच्चे को घर से बाहर निकालते ही सूर्य के सम्पर्क में लाना अत्यन्त लाभदायी प्रक्रिया है। निष्क्रमण एवं सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार का उद्भव एवं विकास प्रश्न उठता है कि इस संस्कार का उद्भव किस स्थिति में और क्यों हुआ ? वैदिक ग्रन्थों में यह वर्णन मिलता है कि जब प्रसूतिगृह में रहने की अवधि समाप्त हो जाती थी, उस समय माता पुनः पारिवारिक जीवन में भाग लेना प्रारम्भ कर देती थी। इसके साथ शिशु का संसार भी कुछ विस्तृत हो जाता
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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