________________
अध्याय
सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार विधि का प्राचीन स्वरूप
सूर्य और चन्द्र-लौकिक जगत के दो मुख्य घटक हैं। इन्हीं के आधार पर भौतिक जगत के अधिकांश व्यवहार चलते हैं। चाहे आध्यात्मिक जगत हो या भौतिक जगत सभी में इनका विशिष्ट स्थान है। मानव के षोडश संस्कारों में भी इन्हें विशेष महत्त्व दिया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में चौथा संस्कार सूर्य-चन्द्र दर्शन नाम का है। दिगम्बर परम्परा में चतुर्थ संस्कार धृति या सीमन्तोन्नयन नाम से प्रसिद्ध है तथा वैदिक परम्परा में जातकर्म नामक संस्कार को चौथा स्थान प्राप्त है। यदि हम अर्थ एवं साम्यता की दृष्टि से विचार करें तो दिगम्बर परम्परा का आठवाँ बहिर्यान नामक संस्कार और वैदिक परम्परा का सातवाँ निष्क्रमण नामक संस्कार श्वेताम्बर परम्परा में मान्य सूर्येन्दु दर्शन नामक संस्कार से मिलते-जुलते हैं। ये तीनों संस्कार प्रायः अर्थ की दृष्टि से समतुल्य हैं। हम अर्थ को केन्द्र में रखते हुए सूर्येन्दु दर्शन संस्कार का विवेचन करेंगे। सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार के विभिन्न पर्याय
इसका सीधा सा अर्थ है - सूर्य और चन्द्र के दर्शन करवाना। बहिर्यानसंस्कार का अर्थ है - बाहर की दुनिया से अवगत कराना । निष्क्रमण संस्कार का अर्थ है-बहिर्गमन अर्थात बच्चे को घर से बाहर ले जाना । यहाँ सूर्येन्दुर्शन, बहिर्यान एवं निष्क्रमण - तीनों के अर्थ में साम्यता है, यह प्रस्तुत प्रसंग से सुस्पष्ट है।
W
5
सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार की मौलिक आवश्यकता
बालक को सूर्य-चन्द्र का दर्शन क्यों करवाया जाता है ? इस विषय पर यदि गहराई से मनन और शास्त्र ग्रन्थों का मंथन करें तो बहुत से निगूढ़तम तथ्य सामने आते हैं। इस दुनिया में सूर्य एवं चन्द्र शक्तिशाली और प्रभावशाली तत्व माने जाते हैं। यह संसार इन दो तत्त्वों के आधार पर ही टिका हुआ है। दिन