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xii... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
जैनागमों में ऐसे ही उल्लेख अन्य महापुरूषों के जन्म के सम्बन्ध में भी मिलते हैं। पुन: उपनयन संस्कार का कोई उल्लेख नहीं है मात्र पाठशाला में अध्ययन हेतु भेजे जाने के उल्लेख हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि जैन परम्परा में षोडश संस्कारों का विकास परवर्तीकाल में हुआ है। आगमों में इन संस्कारों के विधि-विधानों का कोई उल्लेख नहीं है। मात्र कुछ संस्कारों के नामोल्लेख रूप संकेत ही मिलते हैं।
श्वेताम्बर परम्परा की अपेक्षा भी दिगम्बर परम्परा के महापुराण जिसके दो भाग हैं-आदिपुराण और उत्तरपुराण। इनमें जिन दिक्षान्वय नामक क्रियाओं का उल्लेख है उनमें प्राय: अनेक संस्कारों के उल्लेख मिल जाते हैं, किन्तु महापुराण में भी उनके विधि-विधान का विशेष उल्लेख नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में षोड़श संस्कारों और उनके विधि-विधानों का सर्वप्रथम उल्लेख हमें वर्धमानसूरि के आचार दिनकर नामक ग्रंथ में मिलता है। यद्यपि इसके पूर्व जैन परम्परा के विधि-विधानों से सम्बन्धित विधिमार्गप्रपा आदि कुछ ग्रन्थ लिखे गए थे, किन्तु उनमें गृहस्थ के षोड़श संस्कारों में से कुछ संस्कारों का नामोल्लेख होना यह तो अवश्य सूचित करता है कि व्यवस्था के रूप में निर्ग्रन्थ परम्परा में संस्कारों को करने की परम्परा तो थी, किन्तु उन्हें धर्म या साधना का अंग नहीं समझा जाता था वे मात्र लोकोपचार के रूप में सम्पादित किए जाते थे। सर्वप्रथम हमें आचार दिनकर में ही इन षोड़श संस्कारों को धार्मिक रूप में सम्पादित किया जाना परिलक्षित होता है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जैन परम्परा में संस्कार संबंधी विधि-विधान हिन्दू परम्परा से ही अवतरित किए गए हैं। जैन परम्परा में उन संस्कारों संबंधी विधि-विधानों को यथावत् रूप में ग्रहण कर लिया था।
सत्य तो यह कि जैन आचार्यों ने उन्हें ग्रहण करने में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है और उन्हें जैन धर्म के अनुकूल बनाने का प्रयत्न भी किया है। यही कारण था कि जहाँ वैदिक और दिगम्बर जैन परम्परा में गर्भाधान संस्कार में यौन-क्रिया को स्थान दिया गया, वहाँ आचार्य वर्धमानसूरि ने उसे स्थान न देकर गर्भाधान क्रिया को गर्भ की सुरक्षा का हेतु बताकर गर्भाधान के पाँच माह पश्चात् गभार्धान संस्कार करने का निर्देश किया है।
इन संस्कारों में षष्ठी पूजन और उपनयन संस्कार वस्तुत: जैन परम्परा में वैदिक परम्परा से ही ग्रहीत हुए हैं। जैन आगमों में षष्ठी पूजन के स्थान पर मात्र