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सम्पादकीय
किसी भी क्रिया को सम्यक् रूप से संपन्न करना संस्कार कहलाता है। संस्कारों के आधार पर संस्कृतियों का जन्म होता है। वस्तुत: एक संस्कारित समाज ही किसी संस्कृति को जन्म दे सकता है। संस्कृति समाज पर और समाज व्यक्ति पर आधारित है दूसरे शब्दों में व्यक्ति से समाज और समाज से संस्कृति बनती है। अत: संस्कारों का व्यक्ति और समाज दोनों के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति को सुयोग्य एवं सुसंस्कृत बनाने की क्रिया ही संस्कार कही जाती है। सामान्यतया मानव में मानवीय गुणों का विकास करना ही संस्कार है, किन्तु वर्तमान काल में संस्कार का तात्पर्य कुछ विशिष्ट विधि-विधानों से जोड़ा जाता है। इसी आधार पर भारतीय परम्परा में व्यक्ति के गर्भाधान से लेकर उसकी अन्त:क्रिया तक के विधि-विधानों को संस्कार नाम दिया गया है। यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों के ग्रंथ परवर्तीकालीन है, किन्तु विविध संस्कारों का उल्लेख हमें ब्राह्मणों और आरण्यकों के काल से ही मिलने लगता है। ऐतिहासिक दृष्टि से संस्कार सम्बन्धी यह विवेचन प्रथमत: तो वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में ही मिलता है, तदनन्तर कालान्तर में जैन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख मिल जाता है।
वैदिक परम्परा में गृहस्थ के जिन षोडश संस्कारों का उल्लेख हुआ है, उनमें से कुछ के उल्लेख प्राचीन जैन आगमों में मिल जाते हैं। जैन वांगमय में जहाँ तीर्थकरों के या किसी विशिष्ट महापुरूष के जीवन का वर्णन है, वहाँ कुछ संस्कारों का नामोल्लेख हमें अवश्य प्राप्त हो जाता है। कल्पसूत्र में भगवान महावीर के गर्भाधान संस्कार की तो कोई चर्चा नहीं है, किन्तु उनके देवलोक से च्यवन, माता को स्वप्न दर्शन, गर्भ संहरण तथा त्रिशला के गर्भ में पुनः स्थापना आदि घटनाओं के उल्लेख है, किन्तु तत्सम्बन्धी संस्कार का कोई उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार उसमें महावीर के जन्म के पश्चात् जन्मोत्सव, जन्म के तीसरे दिन चन्द्र और सूर्य के दर्शन, छठवें दिन रात्रि में धर्म जागरण, ग्यारहवें दिन अशुचि निवारण, बारहवें दिन स्वजनों के भोजन तथा नामकरण संस्कार के उल्लेख मिलते हैं।