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________________ पुंसवन संस्कार विधि का सामान्य स्वरूप ...71 इस संस्कार द्वारा पुत्रैषणा की कामना पूरी होती है तथा विकसित हुए गर्भस्थ जीव को उत्तम संस्कार मिलते हैं। यह इसकी मुख्य उपादेयता है। यह अवधारणा इस संस्कार की आवश्यकता को भी पुष्ट करती है, क्योंकि पुंसवन संस्कार के समय गर्भिणी स्त्री जिनप्रतिमा दर्शन, गुरु दर्शन, स्वधर्मीभक्ति, सुपात्रदान आदि सुकृत करती है, जिनका प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर अनन्य रूप से पड़ता है। __ गृह्यसूत्रों के अनुसार यह संस्कार भ्रूण पुष्टि के लिए किया जाता है। सामान्य दृष्टि से बालक पर सुसंस्कारों की छाप डालने और माता-पिता एवं कुटुम्बियों को उत्तरदायित्त्व बताने के लिए यह विधान किया जाता है। ____ आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करें, तो यह संस्कार न केवल पुत्र प्राप्ति की कामना से किया जाता है, अपितु इस संस्कार द्वारा संसार को सही मार्ग दिखाने वाले, कर्तव्य एवं निष्ठा के पथ पर चलने वाले तथा समाज से बहुत कम लेकर बहुत अधिक देने वाले व्यक्तित्व की कामना की जाती है। यदि पुत्र की प्राप्ति के लिए ही पुंसवन संस्कार इष्ट हो, तो किसी लंगड़े, गँगे, बहरे जातक से भी माता-पिता को सन्तुष्ट होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। __ वैदिक परम्परानुसार इस संस्कार के समय गर्भिणी के नाक के दाहिने छिद्र में मन्त्रोच्चारण के साथ वट, शुंग, कुश, दूर्वा आदि का रस डाला जाता है। इसका मूल कारण यह है कि नासिका के छिद्रों का शरीर अवयव संबंधी नसों के साथ गहरा सम्बन्ध है, जिनमें रक्त प्रवाहित होता है। दाहिने छिद्र से निकलती हुई वायु में उष्णता तथा बाए छिद्र वाली वायु में शैत्य की प्रधानता मानी गई है। उष्मा पुरुषत्व प्रधान है, अत: औषधियों के रस डालने का जो यहाँ विधान है, वह विज्ञान सम्मत है। गर्भस्थ बच्चे के जीवन में ऊष्माजन्य उत्साह भरा रहे-पुरुषत्व का बल बढ़ता रहे-इसी उद्देश्य से यह क्रिया की जाती है। एक प्रश्न यह उठ सकता है कि यह संस्कार दूसरे माह से लेकर आठ मास तक के भीतर ही क्यों किया जाना चाहिए? शरीर शास्त्र का यह नियम है कि गर्भस्थ जीवन में दो-तीन माह तक स्त्री-पुरुष के रजोवीर्य के भ्रूणों में प्रतिस्पर्धा होती रहती है, उनमें जो प्रबल होता है, गर्भस्थ जीव में उसी भाव का उदय होता है। 'मनुस्मृति' में कहा गया है कि यदि जीव में पुरुष भ्रूण की प्रबलता हो तो पुरुष भाव और स्त्री भ्रूण की प्रबलता हो, तो स्त्री भाव का
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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