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70... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
• श्वेताम्बर परम्परा में इस संस्कार को सम्पन्न करने के सम्बन्ध में शुभ नक्षत्र आदि की विस्तृत एवं प्रामाणिक चर्चा है। वैदिक परम्परा में भिन्न-भिन्न मत मतान्तरों के साथ शुभ नक्षत्र आदि का उल्लेख हुआ है दिगम्बर परम्परा में तत्सम्बन्धी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
• श्वेताम्बर परम्परा में यह संस्कार गर्भधारण से आठ माह पूर्ण होने पर, दिगम्बर परम्परा में गर्भाधान से तीसरे माह में एवं वैदिक परम्परा में दूसरे महीने से लेकर आठवें महीने तक किए जाने का विधान है।
• श्वेताम्बर परम्परा में यह संस्कार - विधि गर्भिणी की शारीरिक शुद्धि एवं शारीरिक रक्षा और अरिहन्त परमात्मा की पूजा एवं साधुओं की भक्ति के साथ सम्पन्न की जाती है। दिगम्बर परम्परा में भी मुख्यतया जिनेन्द्रदेव की आराधना के साथ सम्पूर्ण की जाती है, जबकि वैदिक परम्परा में गर्भिणी के नाक में वट वृक्ष की छाल का रस डालने की क्रिया के साथ यह संस्कार पूर्ण किया जाता है। इस संस्कार को सफलतम एवं फलदायी बनाने के लिए तीनों परम्पराओं में कुछ मन्त्रों को बोले जाने का विधान है तथा वे मन्त्र तीनों परम्पराओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं।
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पुंसवन संस्कार को सम्पादित करने के प्रयोजन तीनों परम्पराओं में पृथक्-पृथक् रहे हैं। श्वेताम्बर एवं वैदिक परम्परा पुत्र प्राप्ति की कामना से यह संस्कार विधि सम्पन्न करती है, जबकि दिगम्बर परम्परा में यह संस्कार उत्तम सन्तान की प्राप्ति हेतु किया जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि तीनों परम्पराओं में यह संस्कार अपनी-अपनी प्रचलित एवं शास्त्रोक्त विधि के अनुरूप किया जाता है। प्रायः तीनों परम्पराओं में एक दूसरे के साथ कहीं समानता है, तो कहीं विषमता, कहीं एकरूपता है, तो कहीं विविधता, फिर भी हम यह कह सकते हैं कि सभी परम्पराओं में इस संस्कार विधि का अपनी-अपनी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। उपसंहार
स्त्री में गर्भाधान के चिह्न प्रकट होने पर दूसरे या तीसरे महीने से लेकर आठवें महीने तक परिष्कारात्मक या शुद्धिकरण सम्बन्धी वह संस्कार, जो पुत्रोत्पत्ति के उद्देश्य से किया जाता है पुंसवन कहलाता है। यदि हम प्रस्तुत संस्कार का समीक्षात्मक विवेचन करें, तो इस संस्कार विधि की उपादेयता का भलीभाँति ज्ञान हो सकता है।