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पुंसवन संस्कार विधि का सामान्य स्वरूप ...69 उसकी घनीभूत छाया में सुस्ताते हैं। इन्हीं पारमार्थिक विशेषताओं के कारण उसे देव वृक्ष भी माना जाता है। गर्भस्थ शिशु उदारता, सहृदयता आदि गुण समूह से संयुक्त हो इसी लक्ष्य से वटवृक्ष की छाल का रस सुंघाया अथवा डाला जाता है।
गिलोय नामक वनस्पति की बेल भूमि पर ही नहीं फैलती, वरन किसी सुदृढ़ वृक्ष का सहारा लेकर ऊपर की ओर बढ़ती जाती है। इसके माध्यम से गर्भस्थ शिशु के लिए भी यही कामना की जाती है कि उसका जीवन भी उत्कर्षमय बने और आदर्शवादी पुरुषों का समागम प्राप्त कर ऊपर उठे, भले ही परिस्थितियाँ दुर्बल हों और शरीर, मन एवं अर्थ के साधन स्वल्प हों, तो भी सुयोग्य व्यक्तियों का सान्निध्य पाकर वह प्रगति का पथ प्रशस्त करे। गिलोय में रोगनिरोधक शक्ति सर्वाधिक होती है। वह बुखार जैसे दुष्ट रोगों के कीटाणुओं को भी अपने प्रभाव से दूर कर देती हैं, अतएव गर्भस्थ के भीतर रहे हुए कुविचारों एवं कुसंस्कारों को दूर करने के लिए एवं तद्योग्य बनाने के लिए इस औषधि का प्रयोग किया जाता है।
गिलोय में सौम्य, स्निग्ध एवं बलवर्द्धक गुण भी होते हैं। उसका रस चिकना होता है, उसी प्रकार गर्भस्थ बालक और उसकी माता का अन्त:करण स्नेहसिक्त, सौम्य एवं मधुर हो-इस उद्देश्य से भी गिलोय का सेवन करवाया जाता है। इस तरह पुंसवन संस्कार के समय गर्भिणी को वट वृक्ष एवं गिलोय का रस पिलाया जाना विविध दृष्टियों से लाभकारी सिद्ध होता है।20 पुंसवन संस्कार का तुलनात्मक विश्लेषण
जब हम श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक परम्पराओं के आधार पर पुंसवन संस्कार विधि का तुलनात्मक विवेचन करते हैं तो निम्न संदर्भो में भेद-अभेद स्पष्ट होते हैं
• श्वेताम्बर और वैदिक परम्परा में दूसरे संस्कार का नाम 'पुंसवन' रखा गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में 'प्रीति' नामक दूसरा संस्कार है।
• श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आम्नाय में इस संस्कार का कर्ता जैन ब्राह्मण या क्षुल्लक माना गया है, किन्तु वैदिक धर्म में गर्भिणी के पति या देवर द्वारा यह संस्कार करवाए जाने का विधान है।