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68...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
वटवृक्ष एवं गिलोय का रहस्य- वैदिक-धर्म में पुंसवन संस्कार सम्पन्न करते समय गर्भिणी की नाक में कुशकण्टक (गिलोय) सहित वट वृक्ष की छाल का रस डालने का जो विधान है, वह बड़ा अद्भुत है। इसके पीछे गर्भस्थ शिश की महान कामनाएँ छिपी हुई हैं। यह सर्व विदित है कि वट वृक्ष विशालता, शक्तिवार्धक्यता एवं स्थिरता का प्रतीक है। गिलोय विकार विनाशक एवं बल वर्द्धक तत्वों से युक्त है। इस वनस्पति युक्त औषधि में स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों प्रकार के गुण रहते हैं।
___ स्थूल दृष्टि से देखें तो ये दोनों औषधियाँ गर्भिणी के लिए एवं गर्भस्थ शिशु के लिए शारीरिक आरोग्य बढ़ाने वाली हैं। गर्भावस्था में अपच, उल्टी, आलस्य, सिर दर्द, नींद कम आना, कमर में दर्द आदि की शिकायत रहती है। इनको दूर करने में ये औषधियाँ बड़ी उपयोगी मानी गईं हैं। इनका थोड़ा सा अंश अभिमंत्रित करके इसलिए पिला दिया जाता है कि माता एवं उसके उदरस्थ शिशु के शरीर में कोई हानिकारक रोग कीटाणु हो, तो वह नष्ट हो जाए,
आत्मिक बल बढ़े तथा पोषण में सहायता मिले। इन्हें सुंघाया इसलिए जाता है कि उनके अन्दर जो प्रेरणा एवं भावना सन्निहित है, उसका प्रभाव गर्भिणी के एवं बालक के मस्तिष्क तक पहुँचे। यह प्राकृतिक देन है कि कोई भी वस्तु नाक के द्वार से ही मस्तिष्क में पहुँचती है। नाक में डालने का प्रयोजन यही है कि बरगद एवं गिलोय के गुण मस्तिष्क पर अपना प्रभाव पहुँचा सकने में सफल हों।
इसकी अन्य विशेषता यह है कि वट वृक्ष धीरे-धीरे बढ़ता है और दीर्घजीवी होता है। कार्य की व्यवस्था एवं परिपक्वता के लिए दृढ़ता, निष्ठा एवं धैर्य की आवश्यकता होती है, अत: शिशु निर्माण में धैर्य रखने की बड़ी उपयोगिता है। वट वृक्ष के रस द्वारा गर्भिणी के भीतर धैर्य आदि गुणों का प्रादुर्भाव होता है।
इसी प्रकार वटवृक्ष अपनी जड़ें जमीन में गहराई तक ले जाता है और अपने को हर दृष्टि से मजबूत और परिपुष्ट बनाता है। इसके सिवाय वट वृक्ष की अन्य भी अनेक विशिष्टताएँ हैं। वह स्वयं के विकास-विस्तार के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। वह अपने विस्तार का लाभ दूसरे अनेकों को देता है। कितने ही पक्षी उस पर घोंसले बनाकर रहते हैं, उसके फलों से अपना आहार प्राप्त करते हैं। कितने ही पशु उसकी छाया में विश्राम लेते हैं, कितने ही पथिक