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________________ गर्भाधान संस्कार विधि का मौलिक स्वरूप ...49 संस्कारों का प्रारम्भ गर्भाधान से क्यों? यह रहस्य भरा प्रश्न है कि आखिर संस्कारों का प्रारम्भ जन्म से न होकर गर्भाधान से ही क्यों किया गया है? इस पहलू पर गहराई से चिन्तन किया जाए तो यह निष्कर्ष निकलता है कि इस सृष्टि के मूल में वीर्य और रज-दो प्रमुख तत्व हैं। ये वीर्य-रज जितने शुद्ध होते हैं, सन्तति भी उतनी ही शुद्ध होती हैं। संस्कारी माता-पिता के विशुद्ध वीर्य एवं रज से सुसंस्कृत सन्तान का जन्म होता है-इस तथ्य को पूर्वजों ने भलीभाँति अनुभूत किया, एतदर्थ संस्कारों का प्रारम्भ गर्भाधान से किया गया है। पुरुष-स्त्री के रजोवीर्य का मिश्रण होने से गर्भाधान होता है पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज में अनादि रूप जीव पूर्व से ही विद्यमान है, किन्तु अनेकानेक प्राकृतिक एवं आगन्तुक दोषों के कारण उसकी शुद्धावस्था में विकार उत्पन्न हो जाता है। इन विकारों के परिमार्जन के लिए गर्भाधान संस्कार का विधान किया गया है। दूसरा कारण-आमतौर पर यही माना जाता है कि मृत्यु जीवन को निगल जाती है। जीव का अस्तित्व तभी तक रहता है, जब तक कि मृत्यु उसके पास नहीं आ सकती, किन्तु गर्भाधान एक ऐसी परम्परा है, जिसमें जीवन विजयी बनता है। ऐसे ही अनेक कारण हैं, जिनसे संस्कारों का प्रारम्भ गर्भाधान से किया जाना उपयोगी सिद्ध होता है। गर्भाधान संस्कार करवाने का अधिकारी वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में इस संस्कार को करवाने का अधिकारी जैन-ब्राह्मण या क्षुल्लक को कहा गया है। यहाँ जैन-ब्राह्मण का अर्थ अर्हत् मंत्र से उपनीत हुआ ब्राह्मण है एवं क्षुल्लक शब्द का तात्पर्य ब्रह्मचर्य आदि की विशिष्ट साधना से युक्त साधक से है। सामान्यतया जिसने तीन वर्ष तक विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन किया हो, उसके बाद तीन वर्ष की अवधि के लिए दो करण और तीन योग पूर्वक पंच महाव्रतों के पालन का नियम ले लिया हो, ऐसे व्यक्ति को क्षुल्लक कहा गया है और उसे ही संस्कार-कर्म करने का अधिकारी माना है। ____ आचारदिनकर में जैन ब्राह्मण को 'गृहस्थ गुरु' के नाम से सम्बोधित किया है और गृहस्थों के प्रायः सभी संस्कार गृहस्थ गुरु ही सम्पन्न करता है। इस ग्रन्थ में गृहस्थ गुरु के लक्षण बतलाते हुए यह कहा है कि वह संस्कार सम्पन्न करते
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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