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________________ 48... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि गर्भाधान के समय माता-पिता की शारीरिक तथा मानसिक स्थिति जितनी शुद्ध और पवित्र होती है, बालक का शरीर और मन भी वैसा ही बनता है। इसी को लक्ष्य कर सुश्रुतसंहिता में लिखा गया है-स्त्रीपुरुष जिस प्रकार के आहार-विहार और चेष्टा आदि से युक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, संतान भी वैसी ही होती है। अतएव स्त्री - -पुरुष को संतानोत्पत्ति के लिए गर्भाधान में सर्वथा निर्दोष होकर प्रवृत्त होना चाहिए। इस तरह गर्भाधान एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावोत्पादक संस्कार है। इतिहास में आता है कि अपने समान गुण युक्त संतान उत्पन्न करने के लिए सपत्नीक श्रीकृष्ण ने बदरिकाश्रम में बारह वर्ष तक तप किया था। इस तप के कारण उन्हें प्रद्युम्न जैसा पुत्र प्राप्त हुआ, जो श्रीकृष्ण के समान ही था। इससे स्पष्ट है कि अपेक्षित गुणों से युक्त संतान उत्पन्न करने के उद्देश्य से यह संस्कार किया जाता है। इतिहास के पृष्ठों पर अभिमन्यु को गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह तोड़ने का ज्ञान पिता अर्जुन द्वारा गर्भस्थ माता को सुनाते हुए प्राप्त होने की कथा उल्लेखित है और चक्रव्यूह से बाहर निकलने की बात सुनते हुए माता के सो जाने के कारण अभिमन्यु को इसका ज्ञान नहीं हो सका तथा वही अभिमन्यु की मृत्यु का कारण भी बना। इस उदाहरण से इस बात की पुष्टि होती है कि गर्भस्थ शिशु पर बाहरी वातावरण का अमिट प्रभाव पड़ता है । यही कारण है कि गर्भस्थ शिशु को संस्कारित करने के लिए यह संस्कार किया जाता है। गर्भाधान संस्कार का एक प्रयोजन धार्मिक पक्ष में विवाह की पूर्णता को व्यक्त करना भी रहा है। स्त्री का गर्भ धारण प्रत्येक परिवार में सुखद एवं आह्लादकारक होता है, क्योंकि नारी की महत्ता मातृत्व में ही है। सृष्टि के विकास क्रम को बनाए रखने वाले इस संस्कार की पवित्रता को पुष्ट करने की दृष्टि से तथा दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा मान्य सन्तान प्राप्ति के लिए यह संस्कार अवश्यमेव किया जाना चाहिए | 4 निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक - इन तीनों परम्पराओं में यह गर्भाधान संस्कार विशिष्ट प्रयोजन पूर्वक जाति एवं कुल परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिए सम्पन्न किया जाता है ।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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