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50...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन समय स्नान किया हुआ, चोटी बांधा हुआ, उपवीत और उत्तरासंग को धारण किया हुआ, श्वेत वस्त्र पहना हुआ, पंचकक्षा धारण किया हुआ, मस्तक पर चंदन का तिलक लगाया हुआ, दाहिने हाथ में स्वर्ण की अंगूठी पहना हुआ, दर्भ सहित कौसुम्भ कंकण धारण किया हुआ, रात्रि में ब्रह्मचर्य का पालन किया हुआ तथा उस दिन उपवास, आयंबिल, नीवि या एकासन आदि का प्रत्याख्यान किया हुआ होना चाहिए।
आचार्य वर्धमानसरि ने गृहस्थ गुरु के निम्न लक्षण भी बताए हैं-जो शान्त हो, जितेन्द्रिय हो, मौनी हो, दृढ़सम्यक्त्वी हो, अरिहन्त परमात्मा और साधु की भक्ति करने वाला हो, क्रोध, मान, माया और लोभ को जीतने में प्रयत्नशील हो, कुलीन हो, सर्व शास्त्रों का ज्ञाता हो, अविरोधी हो, दयालु हो, समदृष्टि वाला हो, धर्म में द्रढ़ हो, सरल हो, विनीत हो, बुद्धिमान हो, क्षमावान हो, कृतज्ञ हो, द्रव्य और भाव से पवित्र हो। इन गुणों से सम्पन्न गृहस्थ गुरु संस्कार निष्पन्न करवाने का पूर्ण अधिकारी होता है।
दिगम्बर परम्परा में संस्कार करवाने का योग्य अधिकारी उसे कहा गया है, जो विद्याएँ सिद्ध कर चुका है, सफेद वस्त्र पहना हुआ है, यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है और शान्त है। वैदिक परम्परा में संस्कार करवाने योग्य व्यक्ति के सम्बन्ध में काफी मतभेद हैं। सामान्यत: पति को ही संस्कारकर्ता के रूप में स्वीकारा गया है। यह संस्कार एक प्रहर रात्रि के बाद पति के द्वारा शयन स्थान पर किया जाता है तथा पति की अनुपस्थिति में उसका कोई भी प्रतिनिधि वह संस्कार सम्पन्न करवा सकता है। प्राचीनकाल में नियोगप्रथा प्रचलित थी, क्योंकि कुल परम्परा को बनाए रखने के लिए और लौकिक-पारलौकिक क्रियाकर्म के लिए सन्तति का होना आवश्यक था। वैदिक-साहित्य में ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं कि एक विधवा अपने देवर को सन्तति उत्पन्न करने के लिए आमन्त्रित करती है।
कालान्तर में जब पारिवारिक पवित्रता सम्बन्धी विचारों का महत्त्व बढ़ने लगा, तब सन्तति-प्राप्ति गृहस्थ का अनावश्यक अंग हो गया। उस स्थिति में पति का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति का स्थान उपेक्षित-सा हो गया और अन्तत: उसका सर्वथा निषेध भी हो गया। मूलत: प्रचलित परम्परा में गर्भाधान संस्कार का अधिकारी पति ही माना गया है। कदाचित उसकी अनुपस्थिति हो तो