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शोध प्रबन्ध सार ...39
खण्ड-3
जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधि-विधानों का
प्रासंगिक अनुशीलन
व्यक्तित्व विकास एवं अध्यात्मिक उत्थान के लिए साधना और उपासना दो महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं। साधना बीजारोपण है और उपासना बीज को खाद-पानी देने से लेकर उसके विकास के लिए समग्र व्यवस्था जुटाना है। भारतीय संस्कृति में इस शरीर को धर्म आराधना का प्रमुख साधन माना गया है। कहा भी गया है- "शरीर माद्यं खलु धर्मसाधनम्।" __ जैन दर्शन में जीव का परम लक्ष्य आत्मोपलब्धि एवं परमात्म तत्त्व की प्राप्ति है। श्रमण साधना इस लक्ष्य प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण मार्ग है। परंतु जो लोग श्रमण जीवन स्वीकार नहीं कर सकते उनके लिए गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही किस प्रकार अपने आपको जागृत, सीमित एवं मर्यादित रखा जाए इसका पूर्ण निर्देशन भी जैन आचार ग्रन्थों में प्राप्त होता है। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना करते हुए उसमें साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका इन चारों को स्थान दिया। श्रुत साहित्य में श्रमण जीवन एवं उनकी चर्या विधि को जितनी महत्ता दी गई है उतनी मूल्यवत्ता श्रावक जीवन को नहीं दी गई, क्योंकि जीवन का मुख्य ध्येय श्रमण जीवन की ही प्राप्ति है। दूसरा उसमें किसी प्रकार का अपवाद मार्ग नहीं है। इसी सर्वोच्चता एवं कठोरता के आधार पर इनका नियमन भी किया गया है। परंतु जैसे धर्मीजनों के अभाव में धर्म-कर्म का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, उसी प्रकार श्रावक-श्राविकाओं के अभाव में मुनियों की ध्यान-योग साधना सिद्ध नहीं होती।
एक सद्गृहस्थ श्रावक का आचरण कैसा हो? इसकी विस्तृत चर्चा यद्यपि जैनागमों में प्राप्त नहीं है फिर भी उपासकदशासूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथासूत्र, अन्तकृतदशासूत्र, विपाकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि आगमों में उल्लेखित व्रत एवं प्रतिमाओं का वर्णन उस युग में भी श्रावक जीवन की महत्ता एवं मर्यादायुत जीवन को दर्शाता है।
जैन परम्परा में गृहस्थ साधक को 'श्रावक' की संज्ञा दी गई है। जो