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38... शोध प्रबन्ध सार
अध्याय में की गई है।
इस अध्याय का मुख्य हेतु आज के समाज में वैवाहिक जीवन की मौलिकता को बढ़ते हुए एवं जैन विवाह विधि से जन सामान्य को परिचित करवाना है।
सोलहवाँ अध्याय व्रतारोपण संस्कार विधि से सम्बन्धित है। इस संस्कार के माध्यम से गृहस्थ को मर्यादायुक्त, संतोषी जीवन जीने हेतु प्रेरित किया जाता है। साधना पक्ष पर आगे बढ़ने के लिए अनेक प्रकार के विधि-विधानों का उल्लेख जैन साहित्य में प्राप्त होता है। इस संस्कार के द्वारा गृहस्थ वर्ग व्रतों को ग्रहण कर एक सच्चे श्रावक के रूप में अपना जीवन यापन करता है। इस संस्कार का सुविस्तृत वर्णन खण्ड-3 में किया गया है।
मानव जीवन की पूर्णता एवं समाप्ति की सूचक है अंतिम संस्कार विधि । इस संस्कार के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य जीवन सम्बन्धी संस्कारों में यह अंतिम संस्कार है। यहाँ पर पहुँचने के बाद मनुष्य जीवन की लीला समाप्त हो जाती है। बोध जनित वैराग्य उत्पन्न करने में इस संस्कार का मुख्य स्थान रहा है।
सत्रहवें अध्याय में अंतिम संस्कार विधि का अर्थ एवं आवश्यकता आदि बताते हुए इस विषयक अनेक पक्षों को उजागर किया है। इस अध्याय में अंतिम आराधना विधि, विचार आदि के विषय में भी सार गर्भित चर्चा की गई है।
संस्कार यह जीवन निर्माण की मूल नींव है। इन्हीं संस्कारों के आधार पर पशु तुल्य जन्में बालक को मानव एवं महामानव बनाया जा सकता है। प्रस्तुत खण्ड में मानव जीवन योग्य सोलह संस्कारों का किया गया वर्णन आध्यात्मिक मूल्यवत्ता के साथ वैज्ञानिक समीचीनता भी रखता है । इसके द्वारा परम्परागत संस्कार विधि से जैन समाज परिचित हो पाए एवं भावी पीढ़ी में सुसंस्कारों का बीजारोपण कर पाएँ यही अंतरंग इच्छा है।