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40...शोध प्रबन्य सार जिनधर्म एवं जिनवचनों के प्रति श्रद्धा, विवेक एवं क्रिया से युक्त हो वह श्रावक कहलाता है। गृहस्थ श्रावक को उपासक, श्रावक, देशविरत, आगारी आदि अनेक नामों से जाना जाता है।
श्रावक कौन? जैन टीका साहित्य के अनुसार जो सम्यग्दृष्टि है, अणुव्रती है, उत्तरोत्तर विशिष्ट गुणों की प्राप्ति के लिए जिनवाणी का श्रवण करता है वही श्रावक है।
जैन धर्म में गृहस्थ साधना का महत्त्व- जैन दर्शन में सिद्ध अवस्था प्राप्ति के पन्द्रह प्रकार निर्दिष्ट है। गृहस्थलिंग सिद्ध उसी का एक प्रकार है। यह सत्य है कि श्रमण साधना की अपेक्षा गृहस्थ जीवन की साधना निम्न कोटि की होती है। तदुपरान्त कुछ गृहस्थ साधकों को श्रमण साधकों की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। श्वेताम्बर कथा साहित्य में माता मरुदेवी द्वारा गृहस्थ जीवन में मोक्ष प्राप्त करने तथा भरत द्वारा श्रृंगार भवन में कैवल्य प्राप्त करने की घटनाएँ गृहस्थ जीवन में भी भावना के उत्कर्ष तक पहुँचने की सूचक है।
जैन विचारणा में आंशिक निवृत्तिमय जीवन को भी सम्यक एवं मोक्ष मार्ग में सहायक माना गया है। इसी से गृहस्थ साधना का महत्त्व परिलक्षित हो जाता है।
गृहस्थ साधक के विभिन्न स्तर- गृहस्थ साधना अनेक अपवादों से युक्त साधना है। व्रतों एवं भावों की तरतमता के आधार पर उनकी साधना में स्तर भेद होता है। गुणस्थान सिद्धान्त के आधार पर सम्यग्दृष्टि श्रावक के मुख्य दो भेद होते हैं- 1. अविरत सम्यग्दृष्टि और 2. देशविरत सम्यग्दृष्टि। प्रथम कोटि के श्रावक साधना मार्ग के बारे में जानते हैं, निष्ठा रखते हैं परन्तु उसे आचरण में नहीं ला सकते। वे किसी भी प्रकार का व्रत, नियम या प्रत्याख्यान स्वीकार नहीं कर सकते। वहीं दूसरी कोटि के श्रावक सामर्थ्य अनुसार साधना मार्ग पर आगे बढ़ते हैं। यथाशक्ति व्रत नियम आदि भी ग्रहण करते हैं।
पंडित आशाधरजी ने सागार धर्मामृत में गृहस्थ व्रती के तीन भेद किए हैं1. पाक्षिक 2. नैष्ठिक और 3. साधक। यह तीन श्रेणियाँ साधना स्तर के आधार पर निर्धारित की गई है।
नाम आदि निक्षेप की अपेक्षा भी श्रावक के चार प्रकार माने गए हैंगृहस्थ जीवन की प्राथमिक योग्यता- सामान्य व्यक्ति को