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शोध प्रबन्ध सार ...35
विविध चर्चाएँ की गई है। इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन शिशु को बाह्य जगत से परिचित करवाना तथा सुषुप्त शक्तियों को जागृत करना है ।
भारतीय संस्कृति उच्च आदर्शयुक्त संस्कृति है । इस संस्कृति में प्रत्येक मानव को सुसंस्कृत बनाने हेतु कई प्रकार के विधि-विधान प्रचलित हैं। शिशु को प्रथम बार स्तनपान करवाना एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। माता के भीतर रही हुई ममता एवं संस्कारों का पान स्तनपान के माध्यम से करवाया जाता है। वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनों ही परिप्रेक्ष्य में इसकी नितांत उपयोगिता रही हुई है।
छठें अध्याय में क्षीराशन संस्कार की इसी महत्ता, त्रैकालिक आवश्यकता, तदहेतु उपयुक्त काल एवं प्रयोजन आदि के वर्णन के साथ अन्य परम्पराओं से इसका तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है। यह वर्णन शास्त्रोक्त विधियों के आचरण द्वारा बालकों को सुसंस्कृत बनाने में हेतुभूत बने यही प्रयास इस अध्याय के माध्यम से किया गया है।
सातवाँ अध्याय षष्ठी संस्कार विधि से सम्बन्धित है। बालक जन्म के छठवें दिन किए जाने से एवं देवी माताओं की पूजा करने से यह संस्कार षष्ठी संस्कार कहलाता है। नवजात शिशु को अनिष्टकारी उपद्रवों से बचाने एवं आसुरी शक्तियों का आक्रमण रोकने के लिए इस संस्कार का विधान किया जाता है।
इस शोध कृति के आठवें अध्याय का नाम शुचिकर्म संस्कार विधि है। शुचि अर्थात शुद्धि | यह संस्कार दैहिक शुद्धि, स्थान शुद्धि एवं वातावरण शुद्धि हेतु किया जाता है। इस संस्कार के द्वारा प्रसूता नारी, प्रसूत बालक एवं प्रसव स्थल इन तीनों की शुद्धि की जाती है । अशुचि निवारण करने से मन, मस्तिष्क एवं चित्त आनन्दित हो जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से इस संस्कार के द्वारा माता एवं शिशु अनेक संक्रामक रोगों से बचे रहते हैं। इसी के साथ यह अध्याय इस संस्कार के संपादन हेतु आवश्यक समस्त जानकारी का भी प्रतिपादन करता है ।
नामकरण संस्कार विधि को नौवें अध्याय के रूप में प्रतिपादित किया गया है। भारतीय संस्कृति में पूर्व काल से ही नामकरण का विधान देखा जाता है। इस संस्कार के माध्यम से नवजात शिशु को पहचान दी जाती है तथा परिचित एवं ज्ञातिजनों को उसके नाम से परिचित करवाया जाता है।
यह अध्याय नामकरण संस्कार की महत्ता, उपादेयता, प्रयोजन एवं