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34...शोध प्रबन्ध सार
षोडश संस्कारों में पुंसवन संस्कार का दूसरा स्थान है। पुत्र संतान की प्राप्ति के लिए यह संस्कार गर्भवती महिला पर किया जाता है। भारतीय संस्कृति पुरुष प्रधान रही है अत: यहाँ पत्र प्राप्ति की अभिलाषा प्रत्येक परिवार एवं माता द्वारा की जाती हैं। यह संस्कार मुख्य रूप से असमय में गर्भ स्खलन को रोकने तथा बालक एवं गर्भवती माता की मंगल प्रार्थना निमित्त किया जाता है।
तृतीय अध्याय में पुंसवन संस्कार की आवश्यकता को पुष्ट करते हुए उसके प्रयोजन एवं लाभ आदि बताए गए हैं। यह संस्कार किन सावधानियाँ के साथ एवं किस विधि से किया जाना चाहिए इसका प्रामाणिक एवं तुलनात्मक विवरण भी किया गया है।
इस अध्याय का मुख्य ध्येय गर्भस्थ बालक को पुरुषार्थी एवं बलवान बनाना है।
चौथा अध्याय जातकर्म संस्कार विधि से सम्बन्धित है। जातकर्म अर्थात शिशु जन्म के समय पर किए जाने वाले मुख्य विधि-विधान। बालक का जन्म होने के साथ ही यह संस्कार माता एवं नवजात शिशु की रक्षार्थ किया जाता है। बालक का जन्म सर्वत्र आनंद का अवसर माना जाता है। कई बार कुंडली निर्माण आदि ज्योतिष कार्यों को इतना महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता परंतु इनका प्रभाव एवं महत्व नि:शंक रूप से मान्य है। वर्तमान की इसी विचारधारा को ध्यान में रखकर इस अध्याय में शिशु जन्म के समय करने योग्य विधानों का विस्तृत उल्लेख किया गया है। वर्तमान में लुप्त हो रहे संस्कारों को पुनर्जीवित करने के लिए यह अध्याय अवश्य सहयोगी बनेगा यही कामना है।
जैन विधि-विधानों के अन्तर्गत द्वितीय खण्ड का पाँचवां अध्याय सूर्यचंद्र दर्शन की संस्कार विधि का विवेचन करता है।
इस संस्कार के माध्यम से नवजात शिशु को बाहर की दुनिया एवं वातावरण में ले जाने से पूर्व उसे प्राकृतिक ऊर्जा दी जाती है। सूर्य और चंद्र प्रकृति के दो मुख्य तत्त्व हैं। जीवन का सम्पूर्ण विकास इन्हीं पर आधारित है। इनसे नि:सृत रोशनी अनेक सकारात्मक ऊर्जाओं से युक्त होती है। इन्हीं प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक तथ्यों के विवरण के साथ इस अध्याय में सूर्य-चन्द्र दर्शन की आवश्यकता, उद्भव एवं विकास, संस्कार करने योग्य मुहूर्त आदि