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36... शोध प्रबन्ध सार
तत्सम्बन्धी विधि-विधानों से परिचित होने के लिए एक सहयोगी चरण रूप है।
पूर्व काल से आर्य सभ्यता में अन्न को देव रूप माना गया है। बालक को प्रथम बार अन्न खिलाना एक महत्वपूर्ण विधान है और यही विधान अन्नप्राशन संस्कार विधि के नाम से जाना जाता है। दसवें अध्याय में इसी संस्कार का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस संस्कार के द्वारा शारीरिक आरोग्यता, चैतसिक निर्मलता एवं वैचारिक पवित्रता प्राप्त होती है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इस विधि के प्रयोजन एवं हेतुओं की समीक्षा तथा अन्य परम्पराओं के साथ इसका तुलनात्मक अध्ययन इस अध्याय की मौलिकता को और अधिक बढ़ाता है ।
ग्यारहवाँ अध्याय कर्ण वेध संस्कार विधि से सम्बन्धित है । कर्ण वेध का अर्थ है कर्ण छेदन करवाना। प्राचीन भारतीय सभ्यता में पुरुषों द्वारा कर्ण छेदन करवाने की परम्परा देखी जाती है। यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो शरीर और मन को स्वस्थ रखने में सहायक बनती है। क्षेत्रे को अप्रमत्त केन्द्र माना जाता है एवं कर्ण छेदन करने से प्रमाद अवस्था दूर होती है। वर्णित अध्याय में इस संस्कार के आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक प्रयोजन स्पष्ट किए हैं। कर्णवेध संस्कार की आवश्यकता क्यों है ? यह संस्कार कब, किसके द्वारा, किस विधि से करवाया जाए ? आदि की चर्चा भी इस अध्याय में की गई है।
बारहवें अध्याय में चूड़ाकरण संस्कार विधि कही गई है। चूड़ाकरण का अर्थ है सिर के बालों का मुण्डन या झडोला उतारना । राजप्रश्नीय एवं प्रश्नव्याकरण आदि आगमों में इस संस्कार का उल्लेख चौल कर्म के नाम से प्राप्त होता है। आज भी अनेक परम्पराओं में बालक के केश कुल देवी आदि के स्थान पर जाकर उतारे जाते हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार इस संस्कार के द्वारा दीर्घायु प्राप्त होती है। जन्म-जन्मान्तरों की पाश्विक वृत्तियाँ दूर होती हैं, विचार संस्थान प्रभावित होता है तथा दैहिक स्वस्थता प्राप्त होती है।
यह अध्याय चूड़ाकरण संस्कार के उचित सम्पादन के लिए सम्पूर्ण दिशानिर्देश देता है। इसमें वर्णित प्रयोजन, आवश्यकता आदि के रहस्यभूत तथ्य इस संस्कार को और भी अधिक प्राणवान बनाते हैं।
तेरहवाँ अध्याय उपनयन संस्कार विधि से सम्बन्धित है। उपनयन वह संस्कार है जिसके द्वारा बालक को ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु के निकट ले जाया जाता है। विविध भारतीय परम्पराओं में इसका समतुल्य महत्व देखा जाता है।